जूती कसूरी, पैर न पूरी ............
फाजिल्का की पंजाबी जूती Written by - Lachhman Dost Fazilka
जूती कसूरी, पैरी न पूरी, हाय रब्बा वे सानू तुरना पिया . . . . भारत विभाजन से पहले गायिका सूरिन्द्र कौर केलोकगीत की इन मशहूर पंक्तियों ने कसूर की जूती को अमर कर दिया है। यह गीत विभाजन से पूर्व संयुक्त भारत की याद दिलाता है और दशकों बाद भी यह लोकगीत कानों में गूंजता है। बेशक कसूर पकिस्तान के हिस्से आ गया, लेकिन फाजिल्का में भी कसूर की जूती उपलब्ध है। जूती का तला प्लेन था, मगर उत्तरी भारत में सीधे तले की बनी जूती को कसूरी जूती कहा जाता है।
कसूर में जूती के कारोबार से जुड़े कारीगर विभाजन के बाद यहां आकर बस गए और आज वे इस कलाकृति को संजीव रखे हुए हैं। उन्होंने हाथ से बनी जूती की कारीगरी को जिन्दा रखकर फाजिल्का को पंजाब का ऐसा क्षेत्र बनाया है, जहां की जूती सब से अधिक मशहूर है। माना जाता है कि रस्सी को बाटकर और घास फूस से पैर ढककर चलने से ही जूती की शुरूआत हुई है। साधु-संत उस समय चरण पादुकाएं पहनते थे। चमड़े की जूती बनाने की शुरूआत मुगलकाल से हुई। जूती की खासियत यह है कि जूती में पैर को आराम मिलता है और पैर का आकार भी कम बढ़ता है। चमड़े से बनी जूती पसीना सोख लेती है। फैशन के दौर में फाजिल्का की जूती ने एक अलग पहचान बनाई है।
जूती पंजाब के लोगों की शान है। आजादी से पहले जूतीयों के कारीगरों का केन्द्र बिन्दु रहे फाजिल्का की पंजाबी जूतीयां किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। देंश विदेश में इनकी धूम है। तिल्लेदार, मोतीयों, कढ़ाई वाली जूतीयां, लक्कमारवी, बेलबूटे वाली, जालबूटा, प्लेन, घोड़ी, खोसा, पुठ्ठी घोड़ी वाली, साठ बूटा, स्पॉट, स्पेशल स्पाट, दिल्ली फैशन, मैटरो जूती, लक्की जूती, कन्ने वाली जूती, फैंसी, तिल्लेदार, सिप्पीमोती, दबका वर्क, फुलकारी वर्क, धागा वर्क और जरी वाली कढ़ाई आदि जूती काफी मशहूर हैं। जूती कई कारीगरों के हाथों से निकलकर तैयार होती है। जालंधर व अन्य महानगरों से चमड़ा मगवाया जाता है। मदन शू सेंटर के संचालक जकसा राम ने बताया कि चमड़ा की धूलाई के बाद उसे जूती का माप दिया जाता है। उसके बाद जूती पर कढ़ाई के लिए भेजा जाता है।
कढ़ाई करने वाली युवती सोनिया, रजनी व पुष्पा रानी और राधे श्याम ने बताया कि फाजिल्का ऐसा क्षेत्र है जहां हाथ से बारीक कढ़ाई की जाती है। कढ़ाई करते समय उन्हें काफी परिश्रम करना पड़ता है, ध्यान से कढ़ाई करनी पड़ती है। जिस पर काफी समय व्यय होता है। इसके बावजूद उन्हें पूरी मेहनत नहीं मिलती, लेकिन परिवार का पेट भरने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। इसके बाद जूती अन्य हाथों में जाती है, जहां तली तैयार की जाती है। तली के बाद पन्ना और फिर सिलाई करने के बाद जूती तैयार हो जाती है। इसके बाद जूती शोरूम में पहँुचती है। फाजिल्का की जूती पंजाब में प्रसिद्ध है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रताप सिंह कैरो, सरदार दरबारा सिंह, सरदार बेअंत सिह, मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल जब भी फाजिल्का आये हैं, वे जूती खरीदना नहीं भूले। बादल परिवार तो खासकर फाजिल्का की जूतियों पर नाज करता है।
फाजिल्का के करीब 2000 लोग इस काम से अपना पेट पाल रहे हैं। होटल बाजार मेंं जूतीयों की कई दुकानें हैं। दीपालपुरिया की हट्टी के संचालक रोशन लाल खत्री ने बताया कि जूती बनाने के साथ-साथ वह जूतीयां बनाने के लिए फे्रम भी खुद ही तैयार करते थे। नईं दिल्ली, पटियाला, अमृतसर, जालंधर, चण्डीगढ़, सिरसा और बठिंडा जैसे बड़े शहरों के व्यापारी यहां से जूतीयां बनवा कर ले जाते हैं और अमेरिका, कनाडा, जापान जैसे देशों में सप्लाई करते हैं।
इन्दिरा मार्केट में स्थित न्यू फुलकारी जूती पैलेस के संचालक सुभाष चंद्र सांखला और संजय साखला बताते हैं कि जूतीयों के बाजार ने एक लंबा दौर देखा है। फाजिल्का में आज हालात यह हैं कि जूतीयों के कारोबारी आर्थिक तंगी झेल रहे हैं। जूती बनाने के लिए चमड़े के दाम आसमान को छू रहे हैं। कई कारीगरों के हाथों से तैयार हुई जूती दूकान पर पहुंचती है तो ग्राहक पूराने दाम पर ही जूती मांगते हैं। जबकि जूती बनाने के पदार्थ महंगा होने के कारण उन्हें मुनाफा कम होता है। यही कारण है कि अब तक कई परिवार इस काम को छोड़ चुके हैं, मगर यह कहना मुनासिब होगा कि फैशन के इस दौर में फाजिल्का की जूतीयां न सिर्फ नयां स्टाइल स्टेटमेंट गढ़ती है,बल्कि सैंकड़ों लोगों को रोजगार भी मुहैया करवा रही है। कभी लाखों रूपए का व्यापार करने वाले कारीगरों को सुविधाएं देने की काफी जरूरत है ताकि वह लोग इस उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला सकें। क्योंकि इस खूबसूरत जूती के कारण ही कहते हैं कि
जुत्ती करे मुटियार दी चीकू-चीकू।
जद तुरदी मडक़ दे नाल ओए जुत्ती चूँ-चूँ करदी आ।
Jutt kasuri pari na poori . .. . .. . . .
. Prior to the partition of India, these famous rows of singer Surinder Kaur Kellokide have immortalized the shoe of the Kaunoor. This song reminiscent of United India before partition, and decades later, this folk song resonates in the ears. Of course, parts of Pakistan have come, but in Fazilka there is also a lumbering shoe. The shoe of the shoe was plain, but in northern India, straight shawls are called kasuri shui. The artisans associated with the business of the shoe settled here after partition, and today they are keeping this art alive. Having kept alive the handmade shoe workmanship, Fazilka has made Punjab an area where the shoe is more famous than the other. It is believed that the beginning of the shoe has begun only after covering the rope and covering the feet with grasshopper. Sage-saints used to wear stage padukas at that time. The formation of leather shoe started from the Mughal period. The specialty of the shoe is that the foot gets rest in the shoe and the size of the feet also increases. The leather-made shoe absorbs sweat. Fazilka's shoe has made a different identity in fashionable fashion. The shoe is the glory of the people of Punjab. Fajilka's Punjabi shorts are not an idiom for the identity of the artisans of the jute before Independence. Darnash has his smiles abroad. Tigers, pearls, embroidered shoes, Lakkmaravi, Belboute, Jalbuta, Plain, Marei, Khosa, Putthi mare, sixty boots, spots, special spots, Delhi fashion, matro shoe, lucky shoe, shoe shoe, fancy, Cipromi, Dabka Work, Phulkari Work, Thread Work, and Zari Zari Krahai etc. are very famous. The shoe is set out from the hands of many artisans. Leather is beaked from Jalandhar and other metro cities. Jakasa Ram, the director of Madan Shu Center, told that after shaving leather, she is given a measure of shoe. After that the shoe is sent for embroidery. The embroidered woman, Sonia, Rajni and Pushpa Rani and Radhe Shyam said that Fazilka is an area where fine-grained embroidery is done by hand. They have to do a lot of hard work while embroidering, they have to be carefully embroidered. Which has a lot of time spent. Despite this, they do not get enough work, but hard work has to be done to fill the family's stomach. After this the shoe goes in other hands, where the bottom is prepared. After the bottom of the pane and after sewing, the shoe is ready. After that the shoe comes in the showroom. Fazilka's shoe is famous in Punjab. Former Indian President Giani Zail Singh, Pratap Singh Kairo, Sardar Darbara Singh, Sardar Beant Singh, Chief Minister Parkash Singh Badal, Deputy Chief Minister Sukhbir Singh Badal, whenever they came to Fazilka, they did not forget to buy shoe. The cloud family, especially the Fazilka, shy away from the shoe. Nearly 2000 people of Fazilka are straining their lives with this work. There are many shops of the juveniles in the hotel market. Roshan Lal Khatri, director of Hatti of Deepalpuriya, told that with the making of shoe, he used to prepare frames for making shoe. Merchants from big cities like New Delhi, Patiala, Amritsar, Jalandhar, Chandigarh, Sirsa and Bathinda make shoes from here and supply them in countries like USA, Canada, Japan.
Subhash Chandra Sankhala and Sanjay Sankhala, the director of New Fulkari Juoti Palace located in the Indira Market, show that the markets of the markets have seen a long period. The situation in Fazilka is that the traders of the juveniles are facing financial hardships. To make shoes, leather prices are touching the sky. Many shirts reach the shoe shop made by hands, then the client asks for a shoe at the full price. While shoe making items are expensive, they have less profits. This is the reason that many families have left this job till now, but it would be reasonable to say that in this period of fashion, Fazilka shoe not only creates a new style statement, but also provides employment to hundreds of people. There is a great need to provide facilities to artisans who have traded lakhs of rupees so that they can recognize this industry internationally. Because of this beautiful shoe that saysJuti kare Mutiyaar dee cheeku cheekuJad Tudi Maddak da Nal Oye Jatti Chun-chun kardi aa (Lachhman Dost) Writter - Fazilka Ek Mahagatha