punjabfly

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Nov 22, 2019

ਜਦੋਂ ਭੈਣ ਨੇ ਕਿਹਾ, 'ਚੋਰਾਂ ਦੀ ਕੋਈ ਭੈਣ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ'


GuruDuara Vill. Lalo Wali

  ਜੇ ਸੂਰਜ ਵੀ ਨਹੀਂ ਚੜਿਆ ਸੀ ਕਿ ਬਾਹਰੋਂ ਇੱਕ ਕਿਸਾਨ ਨੇ ਆਵਾਜ਼ ਮਾਰੀ, ' ਖ਼ਾਨ ਸਾਹਿਬ, ਖ਼ਾਨ ਸਾਹਿਬ।' 'ਕੌਣ ਆਂ ਭਰਾਵਾ, ਲੰਘ ਆ।' ਸਰਦਾਰ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਦਾਹਾ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਸੁਣ ਕੇ ਉਹ ਅੰਦਰ ਗਿਆ ਤੇ ਹੱਥ ਜੋੜ ਕੇ ਬੋਲਿਆ,' ਖ਼ਾਨ ਸਾਹਿਬ, ਮੇਰੀਆਂ ਮੱਝਾਂ ਚੋਰੀ ਹੋ ਗਈਆਂ, ਮੈਨੂੰ ਤਾਂ ਹੁਣ ਪਤਾ ਲੱਗਿਆ, ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਬਾਲਟੀ ਲੈ ਕੇ ਮੱਝਾਂ ਚੋਣ ਗਿਆ ਸੀ' ਚੱਲ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨੀਂ, ਹੌਸਲਾ ਰੱਖ ਤੇ ਬਹਿ ਕੇ ਪਹਿਲਾਂ ਲੱਸੀ ਦਾ ਗਿਲਾਸ ਚਾੜ, ਫੇਰ ਪਤਾ ਲੈਂਦੇ ਆਂ' ਖ਼ਾਨ ਨੇ ਰਾਹਕ ਨੂੰ ਕਹਿ ਭੇਜਿਆ ਕਿ ਜਾ ਪਿੰਡ ਦੇ ਉਹਨਾਂ ਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਬੁਲਾ ਕੇ ਲਿਆ, ਜਿਹੜੇ ਚੋਰਾਂ ਦੀ ਸੂਹ ਕੱਢਦੇ ਨੇ ਉਹ ਵੀ ਗਏ ਤੇ ਖ਼ਾਨ ਨੇ ਕਿਸਾਨ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਤੋਰ ਦਿੱਤਾ। ਦੋ ਦਿਨਾਂ ਬਾਅਦ ਮੱਝਾਂ ਲੱਭਣ ਗਏ ਨੌਜਵਾਨ ਤੇ ਕਿਸਾਨ ਵੀ ਪਰਤ ਆਇਆ। ਹਵੇਲੀ ਦੀ ਦੂਜੀ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੋਂ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਵੀ ਥੱਲੇ ਗਿਆ। 
Govt S.S. School Vill. Lalo Wali

  ਜਵਾਨਾ ਦੇ ਨਾਲ ਇੱਕ ਕੁੜੀ ਵੇਖ ਕੇ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਗ਼ੁੱਸੇ ਨਾਲ ਭਰ ਗਿਆ। ਬੋਲਿਆ, ' ਓਏ, ਇਸ ਧੀ ਧਿਆਨੀ ਨੂੰ ਕਿਉਂ ਲਿਆਏ '? ਇੱਕ ਬੋਲਿਆ, ਇਹ ਚੋਰਾਂ ਦੀ ਧੀ , ਉਹ ਤਾਂ ਮੱਝਾਂ ਲੈ ਕੇ ਕਿਧਰੇ ਨਿਕਲ ਗਏ, ਅਸੀਂ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਧੀ ਨੂੰ ਲੈ ਆਏ ਆਂ'  'ਕਿਉਂ ਧੀਏ, ਤੈਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਕੁੱਝ ਕਿਹਾ ਤਾਂ ਨਹੀਂ। ਅੱਖਾਂ ਝੁਕਾਈ ਕੁੜੀ ਨੇ ਨਾਂਹ ਵਿਚ ਸਿਰ ਹਿਲਾ ਦਿੱਤਾ ਤਾਂ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਨੇ ਆਪਣੇ ਨੌਕਰ ਨੂੰ ਇਸ਼ਾਰੇ ਨਾਲ ਕੁੜੀ ਨੂੰ ਬੇਗ਼ਮ ਦੇ ਕਮਰੇ ' ਛੱਡਣ ਲਈ ਸਮਝਾਇਆ। ਬੇਗ਼ਮ ਨੇ ਲੜਕੀ ਦੀ ਚੰਗੀ 'ਆਓ ਭਗਤ' ਕੀਤੀ। ਲੱਭਦੇ-ਲੱਭਦੇ ਕੁੜੀ ਦੇ ਭਰਾ ਵੀ ਮੱਝਾਂ ਲੈ ਕੇ ਹਵੇਲੀ ਪੁੱਜੇ ਤੇ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਤੋਂ ਕੁੜੀ ਵਾਪਸ ਮੰਗਣ ਲੱਗੇ। ਪਰ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਦਾ ਜਵਾਬ ਸੀ,' ਨਹੀਂ, ਚੋਰਾਂ ਦੀ ਕੋਈ ਧੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ। ਜਾਓ, ਇੱਥੋਂ ਭੱਜ ਜਾਓ, ਚੰਗੇ ਰਹਿ ਜਾਉਗੇ, ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਦਰੋਗ਼ੇ ਨੂੰ ਕਹਿ ਕੇ ਤੁਹਾਨੂੰ ਜੇਲ ਭਿਜਵਾ ਦੇਵਾਂਗਾ' ਪਰ ਚੋਰ ਕੁੜੀ ਨਾਲ ਖਿੱਚ-ਧੂਹ ਕਰਨ ਲੱਗੇ। ਰੋਲਾ ਸੁਣ ਕੇ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕਈ ਲੋਕ ਉੱਥੇ ਗਏ। ਉਹਨਾਂ ਚੋਰਾਂ ਨੂੰ ਘੇਰ ਲਿਆ। ਫ਼ੈਸਲਾ ਕੁੜੀ ਤੇ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ। ਕੁੜੀ ਨੇ ਵੀ ਭਰਾਵਾਂ ਨਾਲ ਜਾਣ ਤੋਂ ਮਨਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਕਹਿਣ ਲੱਗੀ, ' ਮੇਰੇ ਭਰਾ ਚੋਰੀਆਂ ਕਰਦੇ ਨੇ, ਮੈਂ ਇਹਨਾਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਜਾਣਾ, ਮੈਂ ਪਿੰਡ ਦੀ ਧੀ ਬਣਨਾ ਚਾਹੁੰਦੀ ਆਂ' ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਅੱਗੇ ਵਧਿਆ ਤੇ ਕੁੜੀ ਦੇ ਸਿਰ ਤੇ ਹੱਥ ਰੱਖ ਕੇ ਬੋਲਿਆ,' ਅੱਜ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਹ ਮੇਰੀ ਧੀ ਬਣ ਗਈ, ਇਹਦਾ ਨਿਕਾਹ ਵੀ ਮੈਂ ਹੀ ਕਰਾਂਗਾ। ਚੋਰ ਝੁਕ ਗਏ ਤੇ ਅੱਲਾਹ ਦੀ ਸੌਂਹ ਚੁੱਕ ਕੇ ਕਹਿਣ ਲੱਗੇ, ' ਅੱਜ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਅਸੀਂ ਮਜ਼ਦੂਰੀ ਕਰ ਕੇ ਜੀਵਾਂਗੇ, ਪਰ ਚੋਰੀ ਕਦੇ ਨਹੀਂ ਕਰਾਂਗੇ' ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਤੇ ਕੁੱਝ ਸਮੇਂ ਬਾਅਦ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਨੇ ਕੁੜੀ ਦਾ ਨਿਕਾਹ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਇਹ ਉਹੀ ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਹੈ। (ਲਾਲ ਖ਼ਾਨ ਰਾਜਪੂਤ ਦਾਹਾ) ਜਿਸ ਦੇ ਨਾਂਅ ਤੇ ਪਿੰਡ ਲਾਲੋ ਵਾਲੀ ਵਸਾਇਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਸੰਨ 1938 ਵਿਚ ਉਸ ਦੀ ਮੌਤ ਹੋ ਗਈ। ਪਿੰਡ ਦਾ ਨਾਂਅ ਪਹਿਲਾਂ ਲਾਲਾਂ ਵਾਲੀ ਸੀ ਤੇ ਹੋਲੀ ਹੋਲੀ ਲਾਲੋ ਵਾਲੀ ਪੈ ਗਿਆ। ਭਾਰਤ ਦਾ ਬਟਵਾਰਾ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਉਸ ਦਾ ਪਰਿਵਾਰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਪਿੰਡ ਖਾਨੇ ਵਾਲ ਜਾ ਵਸਿਆ। (Lachhman Dost - 99140-63937)
Lal Khan and Other




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Jun 22, 2019

Come on this time if you want to see Retreat Ceremony on Sadqi Border - Fazilka

सादकी बॉर्डर पर रिट्रीट सेरेमनी देखनी है तो इस  टाइम पर पहुंचें 

Retreat Ceremony - Sadqi Border Fazilka 

New Time - 6:30 

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भारत पाकिस्तान के बीच एक रेखा -


                         इस के इंडिया की तरफ सादकी पोस्ट तो पाकिस्तान की                            तरफ  सुलेमान की पोस्ट                                        

दोनों देशों के बीच रोज़ाना शाम के समय रिट्रीट सेरेमनी होती है - जिसे देखने के लिए भारी संख्या में दर्शक पहुँचते हैं - 14 और 15 अगस्त को तो एक अलग ही नज़ारा होता है


A line between India-Pakistan - Sadqi Post on India's side - Suleimankee post on Pakistan -


Retreat Ceremonies are held between the two countries in the evening - a large number of visitors reach - 14 and 15 August So have a different view.
(LACHHMAN DOST  FAZILKA)

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Jun 19, 2019

भारत पाक के बीच प्यार की मिठास घोलता है जीरो लाइन का मेला

भारत पाक के बीच प्यार की मिठास घोलता है जीरो लाइन का मेला
लछमण दोस्त

फाजिल्का:
इन दिनों मेले चल रहे हैं, इस बीच फाजिल्का के एक सरहदी गांव की एक मजार पर लगने वाला मेला ऐसा भी है, जो भारत पाक के बीच प्यार की मिठास घोलता है। यह मेला भारत पाक सरहद पर स्थित गांव गुलाबा भैणी के निकट जीरो लाइन पर लगता है। यहां पीर बाबा बुर्जी वाला की मजार है, जहां मेले का आयोजन किया जाता है। मजार पाकिस्तान की सरहद से महज 10 फीट की दूरी पर है। खास बात यह भी है कि मजार तारबंदी के दूसरी ओर है। यहां एक गेट है। जहां पहले हर श्रद्धालु को तलाशी देकर मजार पर जाना पड़ता था और यह गेट सिर्फ मेले के दिन ही खोला जाता था। मगर कुछ साल पहले यह गेट हमेशा के लिए खोल दिया गया है।


यह है मान्यता

बताया जाता है कि बॉर्डर के निकट गांव वल्ले शाह उत्ताड़ था। सतलुज दरिया के निकट होने के कारण बाढ़ से गांव हर बार डूब जाता था। मगर बाढ़ का पानी इस मजार को नहीं डूबो सका। वहां से उठकर ग्रामीणों ने मजार के निकट एक गांव बसाया, जिसे गुलाबा भैणी का नाम दिया गया। यहां पहले से मौजूद बाबा बुर्जी वाले की मजार पर हर साल मेला लगता है। बताया जाता है कि मेले में पहले भारत-पाक के जवानों के बीच कुश्ती और कबड्डी भी होती थी। 

Devotees throng Baba Burji wala Samadh fair-Malwa Diary
Malwa Diary
Devotees throng Baba Burjiwala Samadh fair

Hundred of devotees from Indian and Pakistan side thronged Baba Burjiwala Samadh fair, which was organised at Zero Line at GG 1 BOP in the border village Gulabad Bhaini. The samadhi of the Baba Burjiwala is situated just on the International border.Every year, a fair is organised and citizens from both the countries of the nearby areas pay obeisance there.51 battalion of the BSF organised the fair. The women constables were also deployed for frisking the women devotees across the barbed wire fencing.First of all, the jawans of the BSF laid "chaddar" on the memorial of the Baba Burjiwala.Notably, only once in a year on June 19, the day of annual fair, the barbed wire fencing gate is thrown open for the public to pay respect at the memorial since the memorial is located across the fencing.The history of memorial is stated to be of pre-partition days. A large number of villagers in singing and dancing mode were seen thronging in the long queues. On the Pakistan side, scores of devotees were also seen laying "chaddar" at the memorial. Pak rangers had also made elaborate security arrangements.The memorial is considered a joint place of obeisance for the Indian and Pakistanis.After paying respect at the memorial, Kundan Singh, a resident of village Gulaba Bhaini said with the presence of citizens of both the countries at the memorial, a congenial atmosphere is established. On the occasion, the BSF officials, RK Kashayap and Kirhan Lal, who looked after the security arrangements, prayed for cordial relations between the two countries.— Praful C Nagpal (TUESDAY, JUNE 22, 2010)with Thanks 

http://www.tribuneindia.com/2010/20100621/bathinda.htm?fbclid=IwAR2ECyHG0mAEykzCsmQ82cN2hanfR1goVBCh2dg4RhAvgybGFObPYAY1vXU#4

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Jun 18, 2019

फाजिल्का की पंजाबी जूती

जूती कसूरी, पैर न पूरी ............
                                फाजिल्का की पंजाबी जूती                                                                       Written by - Lachhman Dost Fazilka

जूती कसूरी, पैरी न पूरी, हाय रब्बा वे सानू तुरना पिया . . . . भारत विभाजन से पहले गायिका सूरिन्द्र कौर केलोकगीत की इन मशहूर पंक्तियों ने कसूर की जूती को अमर कर दिया है। यह गीत विभाजन से पूर्व संयुक्त भारत की याद दिलाता है और दशकों बाद भी यह लोकगीत कानों में गूंजता है। बेशक कसूर पकिस्तान के हिस्से आ गया, लेकिन फाजिल्का में भी कसूर की जूती उपलब्ध है। जूती का तला प्लेन था, मगर उत्तरी भारत में सीधे तले की बनी जूती को कसूरी जूती कहा जाता है।
कसूर में जूती के कारोबार से जुड़े कारीगर विभाजन के बाद यहां आकर बस गए और आज वे इस कलाकृति को संजीव रखे हुए हैं। उन्होंने हाथ से बनी जूती की कारीगरी को जिन्दा रखकर फाजिल्का को पंजाब का ऐसा क्षेत्र बनाया है, जहां की जूती सब से अधिक मशहूर है। माना जाता है कि रस्सी को बाटकर और घास फूस से पैर ढककर चलने से ही जूती की शुरूआत हुई है। साधु-संत उस समय चरण पादुकाएं पहनते थे। चमड़े की जूती बनाने की शुरूआत मुगलकाल से हुई। जूती की खासियत यह है कि जूती में पैर को आराम मिलता है और पैर का आकार भी कम बढ़ता है। चमड़े से बनी जूती पसीना सोख लेती है। फैशन के दौर में फाजिल्का की जूती ने एक अलग पहचान बनाई है।
जूती पंजाब के लोगों की शान है। आजादी से पहले जूतीयों के कारीगरों का केन्द्र बिन्दु रहे फाजिल्का की पंजाबी जूतीयां किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। देंश विदेश में इनकी धूम है। तिल्लेदार, मोतीयों, कढ़ाई वाली जूतीयां, लक्कमारवी, बेलबूटे वाली, जालबूटा, प्लेन, घोड़ी, खोसा, पुठ्ठी घोड़ी वाली, साठ बूटा, स्पॉट, स्पेशल स्पाट, दिल्ली फैशन, मैटरो जूती, लक्की जूती, कन्ने वाली जूती, फैंसी, तिल्लेदार, सिप्पीमोती, दबका वर्क, फुलकारी वर्क, धागा वर्क और जरी वाली कढ़ाई आदि जूती काफी मशहूर हैं। जूती कई कारीगरों के हाथों से निकलकर तैयार होती है। जालंधर व अन्य महानगरों से चमड़ा मगवाया जाता है। मदन शू सेंटर के संचालक जकसा राम ने बताया कि चमड़ा की धूलाई के बाद उसे जूती का माप दिया जाता है। उसके बाद जूती पर कढ़ाई के लिए भेजा जाता है।
कढ़ाई करने वाली युवती सोनिया, रजनी व पुष्पा रानी और राधे श्याम ने बताया कि फाजिल्का ऐसा क्षेत्र है जहां हाथ से बारीक कढ़ाई की जाती है। कढ़ाई करते समय उन्हें काफी परिश्रम करना पड़ता है, ध्यान से कढ़ाई करनी पड़ती है। जिस पर काफी समय व्यय होता है। इसके बावजूद उन्हें पूरी मेहनत नहीं मिलती, लेकिन परिवार का पेट भरने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। इसके बाद जूती अन्य हाथों में जाती है, जहां तली तैयार की जाती है। तली के बाद पन्ना और फिर सिलाई करने के बाद जूती तैयार हो जाती है। इसके बाद जूती शोरूम में पहँुचती है। फाजिल्का की जूती पंजाब में प्रसिद्ध है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रताप सिंह कैरो, सरदार दरबारा सिंह, सरदार बेअंत सिह, मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल जब भी फाजिल्का आये हैं, वे जूती खरीदना नहीं भूले। बादल परिवार तो खासकर फाजिल्का की जूतियों पर नाज करता है।
फाजिल्का के करीब 2000 लोग इस काम से अपना पेट पाल रहे हैं। होटल बाजार मेंं जूतीयों की कई दुकानें हैं। दीपालपुरिया की हट्टी के संचालक रोशन लाल खत्री ने बताया कि जूती बनाने के साथ-साथ वह जूतीयां बनाने के लिए फे्रम भी खुद ही तैयार करते थे। नईं दिल्ली, पटियाला, अमृतसर, जालंधर, चण्डीगढ़, सिरसा और बठिंडा जैसे बड़े शहरों के व्यापारी यहां से जूतीयां बनवा कर ले जाते हैं और अमेरिका, कनाडा, जापान जैसे देशों में सप्लाई करते हैं।
            इन्दिरा मार्केट में स्थित न्यू फुलकारी जूती पैलेस के संचालक सुभाष चंद्र सांखला और संजय  साखला बताते हैं कि जूतीयों के बाजार ने एक लंबा दौर देखा है। फाजिल्का में आज हालात यह हैं कि जूतीयों के कारोबारी आर्थिक तंगी झेल रहे हैं। जूती बनाने के लिए चमड़े के दाम आसमान को छू रहे हैं। कई कारीगरों के हाथों से तैयार हुई जूती दूकान पर पहुंचती है तो ग्राहक पूराने दाम पर ही जूती मांगते हैं। जबकि जूती बनाने के पदार्थ महंगा होने के कारण उन्हें मुनाफा कम होता है। यही कारण है कि अब तक  कई परिवार इस काम को छोड़ चुके हैं, मगर यह कहना मुनासिब होगा कि फैशन के इस दौर में फाजिल्का की जूतीयां न सिर्फ नयां स्टाइल स्टेटमेंट गढ़ती है,बल्कि सैंकड़ों लोगों को रोजगार भी मुहैया करवा रही है। कभी लाखों रूपए का व्यापार करने वाले कारीगरों को सुविधाएं देने की काफी जरूरत है ताकि वह लोग इस उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला सकें। क्योंकि इस खूबसूरत जूती के कारण ही कहते हैं कि
जुत्ती करे मुटियार दी चीकू-चीकू। 

जद तुरदी मडक़ दे नाल ओए जुत्ती चूँ-चूँ करदी आ।

Jutt kasuri pari na poori . .. . .. . . .

 . Prior to the partition of India, these famous rows of singer Surinder Kaur Kellokide have immortalized the shoe of the Kaunoor. This song reminiscent of United India before partition, and decades later, this folk song resonates in the ears. Of course, parts of Pakistan have come, but in Fazilka there is also a lumbering shoe. The shoe of the shoe was plain, but in northern India, straight shawls are called kasuri shui. The artisans associated with the business of the shoe settled here after partition, and today they are keeping this art alive. Having kept alive the handmade shoe workmanship, Fazilka has made Punjab an area where the shoe is more famous than the other. It is believed that the beginning of the shoe has begun only after covering the rope and covering the feet with grasshopper. Sage-saints used to wear stage padukas at that time. The formation of leather shoe started from the Mughal period. The specialty of the shoe is that the foot gets rest in the shoe and the size of the feet also increases. The leather-made shoe absorbs sweat. Fazilka's shoe has made a different identity in fashionable fashion. The shoe is the glory of the people of Punjab. Fajilka's Punjabi shorts are not an idiom for the identity of the artisans of the jute before Independence. Darnash has his smiles abroad. Tigers, pearls, embroidered shoes, Lakkmaravi, Belboute, Jalbuta, Plain, Marei, Khosa, Putthi mare, sixty boots, spots, special spots, Delhi fashion, matro shoe, lucky shoe, shoe shoe, fancy, Cipromi, Dabka Work, Phulkari Work, Thread Work, and Zari Zari Krahai etc. are very famous. The shoe is set out from the hands of many artisans. Leather is beaked from Jalandhar and other metro cities. Jakasa Ram, the director of Madan Shu Center, told that after shaving leather, she is given a measure of shoe. After that the shoe is sent for embroidery. The embroidered woman, Sonia, Rajni and Pushpa Rani and Radhe Shyam said that Fazilka is an area where fine-grained embroidery is done by hand. They have to do a lot of hard work while embroidering, they have to be carefully embroidered. Which has a lot of time spent. Despite this, they do not get enough work, but hard work has to be done to fill the family's stomach. After this the shoe goes in other hands, where the bottom is prepared. After the bottom of the pane and after sewing, the shoe is ready. After that the shoe comes in the showroom. Fazilka's shoe is famous in Punjab. Former Indian President Giani Zail Singh, Pratap Singh Kairo, Sardar Darbara Singh, Sardar Beant Singh, Chief Minister Parkash Singh Badal, Deputy Chief Minister Sukhbir Singh Badal, whenever they came to Fazilka, they did not forget to buy shoe. The cloud family, especially the Fazilka, shy away from the shoe. Nearly 2000 people of Fazilka are straining their lives with this work. There are many shops of the juveniles in the hotel market. Roshan Lal Khatri, director of Hatti of Deepalpuriya, told that with the making of shoe, he used to prepare frames for making shoe. Merchants from big cities like New Delhi, Patiala, Amritsar, Jalandhar, Chandigarh, Sirsa and Bathinda make shoes from here and supply them in countries like USA, Canada, Japan.
            Subhash Chandra Sankhala and Sanjay Sankhala, the director of New Fulkari Juoti Palace located in the Indira Market, show that the markets of the markets have seen a long period. The situation in Fazilka is that the traders of the juveniles are facing financial hardships. To make shoes, leather prices are touching the sky. Many shirts reach the shoe shop made by hands, then the client asks for a shoe at the full price. While shoe making items are expensive, they have less profits. This is the reason that many families have left this job till now, but it would be reasonable to say that in this period of fashion, Fazilka shoe not only creates a new style statement, but also provides employment to hundreds of people. There is a great need to provide facilities to artisans who have traded lakhs of rupees so that they can recognize this industry internationally. Because of this beautiful shoe that saysJuti kare Mutiyaar dee cheeku cheekuJad Tudi Maddak da Nal Oye Jatti Chun-chun kardi aa                                    (Lachhman Dost) Writter - Fazilka Ek Mahagatha 
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Jun 15, 2019

न कुश्ती, न अखाड़ा, मगर किन्नर मान्यता पर आज भी कायम

न कुश्ती, न अखाड़ा, मगर किन्नर मान्यता पर आज भी कायम चादर चढ़ाने के बाद 3-4 घंटे नाचते हैं किन्नर                                

फाजिल्का: एक सदी से भी अधिक समय हो गया। मेला हर साल होता है। मगर अब वहां न कुश्ती होती है और न कबड्डी, लेकिन मेले के प्रति किन्नरों की मान्यता आज भी कायम है। वह हर साल की तरह भारी तादाद में आते हैं। पीर की मजार पर चादर चढ़ाते हैं और फिर शुरू हो जाता है नृत्य व गीतों का दौर। यह क्रम करीब तीन घंटे तक चलता है। मजाल है कि वहां आया श्रद्धालु उनका नृत्य देखे बिना चला जाए, तब तक किन्नर नृत्य करते रहेंगे, तब तक दर्शक बैठे रहेंगे। जी हां, यह मंजर हर साल फाजिल्का के मौहल्ला पीर गोराया में पीर गोराया की मजार पर देखा जा सकता है। 

मेले का इतिहास

मेला भारत विभाजन से पहले का हो रहा है। बताया जाता है कि पहले फाजिल्का के मियां फज्जल खां वट्टू व अन्य मुसलमान समुदाय की ओर से करवाया जाता था। जो एक सप्ताह तक चलता था। मेले में दूर दराज से पहलवान व जवान कुश्ती और कब्ड्डी खेलने आते थे। मुहम्मद सदीक और सुरिन्द्र छिन्दा आदि पंजाबी कलाकारों सहित मशहूर कलाकारों का मंच पर मुकाबला होता था, लेकिन समय के साथ साथ वह सब कुछ खत्म हो गया। अब मेला सिर्फ एक दिन ही आयोजित किया जाता है। 

किन्नरों की मान्यता

किन्नर माई बताती हैं कि उनके पूर्वज पहले मेले जाते थे और उनके पहुंचने पर ही मेले की शुरूआत होती थी। अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलते हुए वह भी मेले में एक टोली के रूप में पहुंचते हैं। उनका कहना है कि ऐसा कोई साल खाली नहीं गया, जब किन्नर मेले में न पहुंचे हों। 

ऐसा करते हैं किन्नर

आसपास के जिलों से आए किन्नर एक डेरे में एकत्र होते हैं। वहां से लड्डूयों का एक बड़ा थाल लिया जाता है। वह डेरे से चलते हैं और बाजार में बाबा का नाम जपते हुए मेले में पहुंचते हैं। जहां पहले चादर चढ़ाते हैं और फिर नृत्य का सिलसिला शुरू करते हैं। यह सिलसिला पहले देर सांय तक चलता था। मगर अब तीन से चार घंटे तक चलता है।

Gaddinasheen before India partition
Pir Baderdeen guraya & other 
photo by- Fazal Abbas Peerzada


No wrestling, no Akhara, but it still persists on sheer recognitionAfter wrapping the sheets, they dance to 3-4 hours.

Fazilka:- It's been more than a century. The fair happens every year. But now there is neither wrestling nor kabaddi, but the recognition of the kinars for the fair is still in place. He comes in a lot like every year. Papers are offered at the pyar's mazar, and then begins the dance and songs round. This sequence runs for about three hours. It is interesting that the devotees who came there should leave without seeing their dance, till then they will continue to dance, till then the audience will be sitting. Yes, it can be seen every year on the mazar of Peer Goraya in Mohalla Pir Goraya, Fazilka.
Fair History
Fair is happening before the partition of India. It is said that the first was made by Mian Fajal Khan Wattoo and other Muslim community of Fazilka. Which lasted for a week. In the fair, wrestlers and young men used to play wrestling and cabbage from far away. Muhammad Sadeek and Surinder Chhinda were fists on the stage of famous artists, including Punjabi artists, but over time the whole thing was over. Now the fair is organized only for one day.
Accession of kiners
Kinnar Mai points out that his ancestors first used to be festooned, and the festivity started only when they reached. While walking on the footprints of their ancestors, they also arrive at the fair as a group. They say that no such year has gone empty, when Kinnar has not reached the fair.
Do so
Shemars from nearby districts gather in a tent. From there there is a big plate of laddoos taken. He walks from the dock and reaches the fair in the market chanting Baba's name in the market. Where the first sheets are offered and then started the process of dancing. This cycle lasted until late evening. But now it lasts for three to four hours.(LACHHMAN DOST FAZILKA)
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