punjabfly

Sep 7, 2018

Interesting story - Bodla Kabila

दिलचस्प है बोदला कबीला की दास्तान 

Moh. Sarwer Bodla

      एक छोटा सा, किन्तु महत्वपूर्ण परगना, बोदला का भारत आगमन आज से करीब 500 साल पहले हुआ था। 1500 ई. के आसपास बोदला जाति के लोगों के  पूर्वज शहाब-उल-मुल्क उर्फ शेख शहाबुद्दीन अरब देश से भारत आया था और मुलतान के ख्वाजा मुहम्मद इराक आजमी का अनुयायी बन गया। एक दिन संत ने शहाब-उल-मुल्क से कहा कि वह उनके दिल की खुश्बू हैं।
उनसे आशीर्वाद मिलने के बाद शहाब-उल-मुल्क की पीढ़ी बोदला कहलाने लगी। इसके बाद शहाब उल-मुल्क सतलुज दरिया के निकट बहावलपुर क्षेत्र में नजदीकी गांव खाई में जाकर बस गये। जो फाजिल्का से 70 मील दूर दक्षिण-पश्चिम की तरफ  था। यहीं से बोदला परगणा के बसने की शुरूआत हुई। परगना बोदला खुद को शहाब-उल-मुल्क की अगली पीढ़ी मानते थे और खुद को शेख सद्दीकी कहलाना पसंद करते थे। वे दावा करते थे कि वे पवित्र आदमियों में हैं। वह इज्जत से संसारिक पवित्रता और खुशियां मान सकते हैं। मगर इन चीजों की ओर उनका झुकाव कम था। फाजिल्का में बोदला परगना के बसने की दास्तां बड़ी दिलचस्प है। परगना के दो छोटे बोदला परिवार खाई से सीधे इस इलाके में आकर बस गए। सन् 1800 के आसपास इनमें से एक का घग्गर के किनारे डबवाला तहसील के क्षेत्र रंगा नाम के इलाके में कब्जा था। दूसरे बोदला परिवार का कब्जा सरावां और चार अन्य गांवों में था, जो कि फाजिल्का के इलाके में थे। यह भी बताया जाता है कि एक बड़े कबीले के रूप में बोदलों का आगमन चार पीढ़ी पहले मोहकम दीन के अगुवाई में हुआ। जो खाई से वाया संगरूर ,फरीदकोट होते हुए फाजिल्का शहर के उत्तर दिशा की तरफ गांव आहल में आकर बस गए। तब इस इलाके में जनसंख्या ज्यादा नहीं थी।
मगर जब इनकी संख्या में इजाफा हुआ तो उन्होंने आहल बोदला, बहक बोदला व आसपास के इलाके में फैलना शुरू कर दिया। फाजिल्का से मात्र 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव बहक बोदला में इनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। परगना का नेता मुहम्मद सरवर बोदला की हवेली का कुछ हिस्सा आज भी गांव बहक बोदला में मौजूद है। जहां वह नमाज पढ़ते थे। वह मस्जिद भी मौजूद है। आहल और बहक बोदला सहित करीब चार दर्जन गांवों में बसा बोदला परगना के लोग शरीर के लम्बे ,मोटे और मंसल चेहरे वाले थे। उनके नाक और होंठ बहुत बड़े थे। जिस कारण उनका बड़ा और छोटा मुंह बड़ा ही कमजोर नजर आता था। उनकी भाषा और रिवाज वट्टू और बाकी पंजाबी मुसलमानों की तरह थे, लेकिन बताते है कि वह शादियों के कारण उनसे जुदा हो गए। चिश्तीयों से तो उनका कोई नाता नहीं था और बाकी सिक्खों के साथ भी कोई रिश्ता नहीं था। बहक परगना 48 गांवों में काबिज था। जिनमें से अधिकांश परगना बहक के आसपास थे जो कि सतलुज दरिया के किनारे पर था। इसके अलावा उनके पास 20 गांव मिन्टगुमरी, 14 गांव फिरोजपुर, 6 गांव बहावलपुर, 4 गांव बीकानेर और 4 गांव लाहौर में थे। घग्गर और डब्बवाली तहसील में भी इनके कुछ गांव थे। संभवत: परगना के गांवों की संख्या 60 के आसपास थी। फाजिल्का इलाके में उनका ठिकाना गांव अरनीवाला शेख सुुभाण, वल्लेशाहके, नूरशाहके, टाहलीवाला बोदला, आहल बोदला, बहक बोदला और बहक खास आदि गांवों में था। 1800 ई. के आसपास तो वे सियासत में रूचि नहीं लेते थे। मगर मुहम्मद सरवर बोदला के समय से वह सियासत में भी कूद पड़े। सतलुज दरिया के किनारे बसे वट्टू और चिश्ती के अलावा बोदला कबीले के लोग इलाके में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। उनके नाम की धूम दूर-दूर तक थी। मीठा व धार्मिक स्वभाव और आर्थिक तौर पर सम्पन्न परिवार होने के कारण लोग उनकी इज्जत करते थे। उनके पड़ोसी उनके संत स्वभाव का आदर करते थे और इसके लिए पड़ोसी उनके हर काम में अहमियत देते थे। जिससे उनके रूतबे की खासियत को और बढ़ावा मिला, इसका प्रभाव उनके कबीलों के रिवाजों पर भी पड़ा। उनके लिए यह सोचा जाता था कि वो किसी को भी श्रॉप दे सकते हैं। इसके लिए कई मिसाल हैं कि उन्होने बुरी आत्माओं को अपने वश में करके अपने दुश्मनों पर छोड़ा। उनके हाथ में एक खूबी यह भी थी कि वो पागल कुत्ते या भेडिय़े के काटे का इलाज कर सकते थे। हिन्दु और मुसलमान दोनो कुत्ते के काटे जाने पर उनकी सेवाएं लेते थे। कुत्ते के काटने के बाद चमत्कारी ढ़ंग से घायल व्यक्ति ठीक भी हो जाता था। परगना सन् 1850 तक एक ग्रामीण कबीले की शक्ल में था। मगर धीरे-धीरे वह आर्थिक रूप से मजबूत होता गया। उनका अधिकतर धन घोड़ों और दुधारू पशुओं के रूप में था। शुरूआत में उनका मुख्य कार्य पशु पालना था। उनके पास बड़ी संख्या में दुधारू पशु और भेड़-बकरियां थी। जिन्हें घास चराने के लिए वह सारे इलाके में जाते थे। दरियाई इलाका होने कारण पशुओं के लिए हरे चारे की कमी नहीं थी। इन्हें बाद में परगना बहक कहा गया। जो आहल गांव की बर्बादी के बाद बोदला जाति का मुख्य गांव था। जब वह सम्पन्न परिवार हो गए तो उन्होंने कृषि का कार्य और पशु पालना छोड़ दिया। वह अपने धन को व्यर्थ कार्यों में लगाने लगे। वह कृषि खुद करने की बजाए मजदूरों से करवाने लगे। जिस जागीर के मालिकाना हक उन्हें 1858 में दिए गए थे। वो जागीर अब उनके हाथों से निकलकर सिक्खों के हाथों में जा रही थी। उनके कृषि मजदूर यानि सीरी ज्यादातर मुसलमान थे, जो उनको समय पर फसल का हिस्सा देते थे। इस इलाके पर नवाब ममदोट अपना कानूनी अधिकार समझता था और अपना दबदबा कायम रखना चाहता था। नवाब ममदोट की सियासी तौर पर स्थिति काफी मजबूत थी और जमीन जायदाद का एक बड़ा हिस्सा उनके पास था। वह दरिया के आसपास बसे लोगों से कर (टैक्स) वसूलता था। मगर कुछ देर तक कर देने के बाद बोदला कबीला ने कर देना बंद कर दिया। जिस कारण बोदला कबीला का नवाब ममदोट से झगड़ा शुरू हो गया। धीरे-धीरे बोदला आर्थिक तौर पर मजबूत हो गए और नवाब ममदोट का मुकाबला करने की स्थिति में आ गया। वर्षों तक संघर्ष के बाद यह इलाका ममदोट के अधिकार से छीन लिया गया। नवाब ममदोट के कब्जे से मुक्त हुआ बहक परगने को 1858 मे फिरोजपुर से काटकर जिला सिरसा से जोड़ दिया गया। यह ब्रिटिश सम्राज्य के बंदोबस्त अफसर ब्रेंडब्रैथ ने सन् 1857-58 में निर्धारित किया था। इसके बाद मिस्टर ब्रेंडब्रैथ का तबादला हो गया।
10 दिसंबर 1885 को जब फाजिल्का तहसील को जिला सिरसा से काटकर जिला फिरोजपुर से जोड़ा गया तो यह परगना भी जिला फिरोजपुर से जुड़ गया। इसके बाद तो परगना बहक फाजिल्का में काफी मजबूत होता गया और क्षेत्र के निकट के कई इलाकों में फैल गया। जिला फिरोजपुर में बोदला की 749 जातियों को 6 से 9 अप्रैल 1881 तक मान्यता दी गई। बोदला जातियों को मान्यता दिलाते समय उनके 19 प्रतिनिधि मौजूद थे। भारत विभाजन हुआ तो यह परगना पाकिस्तान चला गया।
-Lachhman Dost, Writter Fazilka Ek Mahagatha -
Interesting story - Bodla Kabila
      The arrival of a small, but important Parghana, Bodla, came about 500 years ago from today. Around 1500 AD, the ancestral Shahab-ul-Mulk alias Sheikh Shahabuddin, of the people of the Bodolas, came to India from the Arab country and became the follower of Khwaja Muhammad of Iraq's Azmi. One day the saint told Shahab-ul-Mulk that he is the smell of his heart. After receiving blessings from them, the generation of Shahab-ul-Mulk was called Bodla. After this Shahab ul-Mulk settled in the nearby village ditch in Bahawalpur area near Sutlej Dariya. Which was 70 miles southwest of Fazilka. From here it started the settlement of the Vadodara paragana. Pargana Bodala considered himself the next generation of Shahab-ul-Mulk and preferred to be called Sheikh Saddi. They used to claim that they were in the holy men. He can honor worldly holiness and happiness. But their tendency towards these things was low. The tales of settling of the Padola pargana in Phazilka are very interesting. Two small bodla families of Pargana settled in the area directly from the ditch. Around 1800, one of them was occupied by the area of ​​Dagvala tehsil on the side of Ghaggar in the area called Ranga. The possession of the other Bodalala family was in Saravana and four other villages, which were in the area of ​​Fazilka. It is also said that the advent of Bodhals in the form of a large tribe was led by Mahakal Din, four generations ago. From the ditch, through Vaiya Sangrur, Faridkot settled in the village Aihil towards the north side of Fazilka city. Then the population was not much in this area. But when the number of them increased, they started spreading in a lot of bodla, delusional baudla and surrounding areas. Their remains can still be seen in Village Bhahak Bodla, located just 11 kilometers away from Phazilka. A part of the pargana leader Muhammad Sarwar Bodala's mansion is still present in village Bhavad Bodla. Where he used to pray namaz. The mosque is also present. People from Bodla Pargana settled in about four dozen villages, including Ahl and Bhavak Bodala, who were tall, thick and masal-faced in the body. His nose and lips were very big. Because of which his big and small mouth was very weak. His language and rituals were like Vatu and the rest of the Punjabi Muslims, but they show that he got separated from them because of weddings. There was no relationship with the Chishtians and there was no relation with the rest of the Sikhs. Dahac Pargana was occupied in 48 villages. Most of which were around Paragana Bhayak, which was on the banks of the Satluj Darya. Apart from this, he had 20 villages in Minanguri, 14 villages in Ferozepur, 6 villages in Bahawalpur, 4 villages in Bikaner and 4 villages in Lahore. There were also some villages in Ghaggar and Dabwali tehsil. Probably, the number of villages of Pargana was around 60. In the district of Phazilka, his village was in the villages of
Arniwala Sheikh Subhan, Valleshwar, Nurshahke, Tahliwala Bodlala, Azhal Bodlala, Bhavak Bodlala and Bhakk special. In 1800 AD, he did not take interest in politics. But from the time of Muhammad Sarwar Bodhla, he also jumped into politics. Apart from Vattu and Chisti settled on the banks of Sutlej Dariya, people of Bodla tribe kept important places in the area. The fame of his name was far and wide. People used to respect them because of their sweet and religious nature and financially prosperous family. Their neighbors respected the nature of their saint and for this, the neighbors gave importance to their work. This led to the promotion of the status of his rathab, which also affected the customs of his family. It was thought for them that they could give a shroud to anyone. There are many precedents for them that they have left the evil spirits under their control and left them on their enemies. There was also an impression in his hand that he could cure a mad dog or wolf bite. Both Hindus and Muslims used to take care of their dogs when they were bitten. After the bite of the dog, the miraculously injured person was also cured. Pargana was in the shape of a rural tribe till 1850. But gradually it became financially strong. Most of his money was in the form of horses and milch animals. Initially his main task was to bring cattle. He had a large number of cattle and sheep. Those who used to go to the whole area to feed grass There was no shortage of green fodder for cattle due to the riverine terrain. These were later called paragana devas. Which was the main village of Bodla caste after the ruin of Ahl village. When he became a close family, he left the work of agriculture and cattle cows. He started putting his wealth in vain work. Instead of doing the farming themselves, they started working with the laborers. The landowner's possession was given to them in 1858. The manor was now leaving his hands and going to the hands of the Sikhs. Their agricultural laborers, i.e. serie, were mostly Muslims, who gave them part of the crop at the time. Nawab Mumdot considered his legal authority on this area and wanted to maintain his dominance. Nawab Mumdot's political situation was very strong and he had a big share of the land property. He used to tax the people settled around the river. But for a while, the Bodla tribe stopped paying taxes. As a result, a dispute started with the Nawab Mamdot of Bodla tribe. Slowly Padilla became financially strong and Nawab came to terms with Mamadot. After the struggle for years, the area was snatched from Mmdot's right. The disgusting pargana, which was liberated from the possession of Nawab Mammadot, was merged with Ferozepur in 1858 to the district Sirsa. It was determined by Brendbrath, the governing British Empire, in 1857-58. After this Mr Brandbraith was transferred. When on December 10, 1885, when Fazilka tahsil was cut from district Sirsa and connected to the district Ferozpur, this paragana also got attached to the district Firozpur. After this, Paragana Bahaka became very strong in Phazilka and spread to many areas near the area. 749 castes of Bodla were recognized from 6 to 9 April 1881 in District Firozpur. Recognizing Bodla castes, 19 representatives were present. If India was partitioned then this paragana went to Pakistan.
-Lachhman Dost Writter Fazilka Ek Mahagatha 

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