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Sep 15, 2018

Builder of bungalow(Fazilka)- Once Agnew's journey from Calcutta to Multan

बंगला के निर्माणकर्ता
वन्स एगन्यू का कलकता से मुल्तान तक का सफर 
Bangla
    सतलुज दरिया के किनारे हरियाली, लहलहराते खेत, कहीं धूल, कहीं जंगल। यह अदभुत व मनमोहक नजारा, उन ग्रामीणों के लिए तो कोई नया नहीं था। जो बरसों से इस नजारे के आसपास रह रहे थे, लेकिन उस व्यक्ति के लिए यह नजारा वास्तव में अनूठा था, जिसने यहां एक शहर बसाने की सोची। वैसे कोई शहर बसाया नहीं जाता। अलबत्ता शहर खुद ही बस जाता है, लेकिन उसमें किसी न किसी व्यक्ति का हाथ, सहयोग और समपर्ण जरूर होता है। ऐसे ही एक शख्स थे, वंस एगन्यू यानि पैट्रिक वंस एगन्यू। वंस एगन्यू तो उनका सर नेम था। उनका असली नाम था, पैट्रिक एलैगजेंडर। सर नेम मिलने के बाद उनका नाम पैट्रिक एलेगजेंडर वंस एगन्यू पड़ गया। वंस एगन्यू एक ऐसे ब्रिटिश अधिकारी थे जो पंजाबी भाषा का भी ज्ञान रखते थे। उनका फाजिल्का को बसाने की राह में अहम योगदान है। फाजिल्का के इतिहास में बंगले की दास्तान के जिक्र दौरान मुस्लमान फजल खां वट्टू के नाम के साथ वंस एगन्यू का जिक्र जरूर होगा। पिता के नक्शे कदमों पर चलकर ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने वाले वंस एगन्यू बंगाल सिविल सर्विस में तैनात हुए। इसके बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भटियाणा में सहायक सुपरिटेडेंट के पद पर तैनात किया गया। वह एक सियासी अधिकारी की कला में माहिर हो गए। हालांकि उनकी आयु कम थी। मगर ब्रिटिश अफसरों में उनका प्रदर्शन अच्छा रहा। उनका मनपसंद काम था शहरों को आबाद करना। वह जहां भी गए। शहरों के विकास में उनका अह्म योगदन रहा। बात चाहे फाजिल्का की हो या लाहौर की। वह तीन बातों में इतफाक रखते थे, पहली बात किसी चीज को आरंभ करने के लिए सही जगह क्या है? दूसरा किन लोगों को मिलना या सुनना चाहिए? उनके जहन में तीसरी बात यह थी कि सब से महत्वपूर्ण कार्य क्या है, जिसे प्राथमिकता के आधार पर किया जाए। इस सोच को आधार मानकर ही उन्होंने फाजिल्का शहर बसाने में प्राथमिकता से काम किया।                       
  फाजिल्का में बंगले के निर्माणकर्ता ब्रिटिश अधिकारी पैट्रिक एलेगजेंडर वन्स एगन्यू ने भले ही ब्रिटिश साम्राज्य में सिर्फ 7 साल तक सेवा की, लेकिन इस सेवा दौरान उन्होंने ऐसी कई भूली बिसरी यादें छोड़ी जो अमिट यादें बनकर रह गई। कलकत्ता में उन्होंने 3 साल गुजारे तो फाजिल्का में वह 2 साल रहे। फाजिल्का में उन्होंने एक ऐसे बंगले का निर्माण करवाया। जिसके नाम पर क्षेत्र का नाम बंगला ही पड़ गया। हॉर्श शू लेक किनारे निर्मित इस बंगले की धूम दूर-दूर तक रही है। बंगला नामक इस कस्बे को खुशहाली देने के पश्चात उन्हें लाहौर में तैनात कर दिया गया। वहां से मुलतान तक के सफर में उन्हें कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। मुल्तान में दूसरा सिक्ख एंग्लो युद्ध शुरू हुआ तो उनकी जिंदगी का अंतिम सफर भी समाप्त हो गया। 
    वन्स एगन्यू का जन्म 21 अप्रैल 1822 को नागपुर में पैट्रिक वन्स एगन्यू के घर हुआ। उसकी माता का नाम कैथराइन फरेसर था। उनके पिता मद्रास आर्मी में लेफ्टीनेंट कर्नल थे। जिन्होंने सिक्ख व ब्रिटिश साम्राज्य के निणार्यक युद्ध पहले एंगलो सिख युद्ध सन् 1845-1846 में भी भाग लिया। मार्च 1841 में बंगाल सिविल सर्विस में ज्वाइंन करने वाला युवा वंस एगन्यू 1844 में फाजिल्का में बंगले का निर्माणकर्ता बन गया। उन्होंने बहावलपुर के नवाब मुहम्मद बहावल खान।।। से जगह ली और बाधा झील यानि हार्श शू लेक के किनारे एक विशाल बंगले का निर्माण करवाया। बंगले में हर सरकारी व गैर सरकारी काम होने लगे। दूरदराज से लोग यहां न्याय पाने के लिए आने लगे। बंगला नाम प्रत्येक व्यक्तिकी जुबान पर चढ़ गया। सब लोग बंगला का नाम पुकारने लगे। यही कारण है कि फाजिल्का नाम से पहले नगर का नाम बंगला हुआ करता था। बुजुर्ग आज भी शहर को फाजिल्का कम और बंगला ज्यादा पुकारते हैं। वंस एगन्यू सियासी ब्रिटिश अफसर थे, इस कारण हर सियासी नेता का यहां आना-जाना था। सियासी नेता ही नहीं, प्रत्येक ब्रिटिश अफसर भी यहां पहुंचते। सिरसा के अलावा मालवा, सतलुज राज्य की बैठकें यहां होने लगी। एक युवा अफसर के नेतृत्व में बंगला का नाम चंद ही महीनों में मशहूर हो गया। यहीं से शुरू हुआ बंगला नगर के निर्माण का कार्य। इधर वंस एगन्यू ने 1844 में बंगले का निर्माण करवाया, उधर दीवान मूल चंद को मुल्तान का गर्वनर बनाया गया। 
          इस पद के बदले वह लाहौर सरकार को 20 लाख रूपए वार्षिक अदा करता था। जबकि कई इतिहासकारों ने इस की अदायगी की रकम 12 लाख रूपए बताई है। सभराओं की लड़ार्ई में विजयी होने के बाद अंग्रेजों ने लाहौर की तरफ कूच किया तो किसी ने उन की खिलाफत नहीं की। आखिर 20 फरवरी 1846 को अंग्रेज सेना लाहौर पहुंच गई। इस बीच बंगला नगर की प्रसिद्धी पंख फैला रही थी। एक खुशहाल और ऐगन्यू के सपनों का नगर बसने की योजना तैयार हो रही थी कि वंस एगन्यू का यहां से 13-12-1845 को फिरोजपुर का अतिरिक्त चार्ज दे दिया गया। जहां वह से 23-02-1846 तक रहे। उसके बाद एगन्यू का तबादला लाहौर कर दिया गया। लाहौर सिक्खों की राजधानी थी। वहां भी वंस एगन्यू ने शहर के विकास को ओर आगे बढ़ाया उधर धीरे-धीरे पंजाब के चिलियांवाला, गुजरात, राम नगर और लाहौर में अंग्रेजों के खिलाफ दूसरे युद्ध की तैयारी शुरू होने लगी। 
            पहले एंग्लो-सिक्ख युद्ध सन् 1845-1846 के बाद अंग्रेजों ने जालंधर दोआब में कब्जा जमा लिया था। युद्ध के बाद सिक्ख कमजोर पड़ चुके थे। शासन प्रणाली का कंट्रोल ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। अंग्रेज महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही लाहौर को घेरने की नीति बना चुके थे। जब अंग्रेज लाहौर पहुंचे तो उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की एक पत्नी महारानी जिन्द कौर को डेढ़ लाख रूपए की वार्षिक पैंशन तय कर दी। जो बाद में 48 हजार रूपए वार्षिक की गई। उन्हें पहले शेखू पुरा और बाद में बनारस भेज दिया गया। युद्ध का एक अन्य कारण यह भी था कि पहला ऐंग्लो सिक्ख युद्ध में हार का बदला लेने की भावना अंगेजों के दिल में घर कर चुकी थी। इस बीच शुरू हो गया मुलतान के सूबेदार दीवान मूलराज का विद्रोह। इस विद्रोह में ही बंगले नगर के निर्माणकर्ता वंस एगन्यू को मार दिया गया। जो एक इतिहास बन गया। यह दास्तान भी बड़ी अजीब है। इस अनोखी दास्तान के पन्ने बताते हैं कि 20 फरवरी 1846 को जब अंगे्रजों ने लाहौर का शासन प्रबंध अपने हाथों में ले लिया तो उन्होंने मूलराज का टैक्स 20 लाख रूपए से बढ़ाकर 30 लाख रूपए वार्षिक दिया। (फॉर्मली हैड, पोस्ट ग्रेजूऐट डिपार्टमेंट ऑफ हिस्ट्री आर्य कॉलेज लुधियाना के श्री एस.पी. सभ्रवाल ने पंजाब के इतिहास में यह टैक्स 12 से बढक़र 18 लाख रूपए बताया है। साथ ही उन्होंने राज्य का 1/3 हिस्सा भी लेना बताया गया है।) टैक्स ज्यादा होने के कारण दीवान मूल राज ने इसे अदा करने में असमर्था जताई, लेकिन अंग्रेज नहीं माने। अपीलों के बावजूद इंकार होता रहा तो दीवान मूल राज ने पद से इस्तीफा दे दिया। अंग्रेज तो पहले ही इस ताक मेें थे और मार्च 1848 में नएं रैजीडेंट फ्रैड्रिक करी ने मूलराज का इस्तीफा स्वीकार कर लिया, लेकिन शायद वे यह नहीं जानते थे कि सिक्खों का विद्रोह उन पर भारी पड़ सकता है। दूसरी तरफ उनकी सोच का एक हिस्सा यह भी था कि अंग्रेज विद्रोह को जान-बुझ कर हवा देना चाहते थे ताकि उन्हें पंजाब पर कब्जे का एक बहाना मिल जाए। अधिक मजबूती के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने काहन सिंह को मुल्तान का सूबेदार घोषित कर दिया। उनकी सहायता के लिए बंगला (फाजिल्का ) के निर्माणकर्ता वंस एगन्यू और विलियम एंडरसन को भेजा गया। 19 अप्रैल 1848 को दीवान मूल राज ने खुशीपूर्वक नए सूबेदार को चार्ज दे दिया। अंग्रेजों की ओर से नया सूबेदार बनाने से मुल्तानी सैनिक खुश नहीं थे। उन्होंने विद्रोह शुरू कर दिया। जब वंस एगन्यू और विलियम एंडरसन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना विद्रोह दबाने के लिए मुलतान की ओर बढ़ी तो मुलतानी सैनिक और भडक़ उठे। सिक्खोंं को पता चला कि ब्रिटिश सैनिक वंस एगन्यू और विलियम एंडरसन के नेतृत्व  मेेंं आगे बढ़ रहे हंै तो उन्होंने बृज पार करते समय दोनों अंग्रेज अफसरों को घोड़े से नीचे उतार लिया और उन्हें बुरी तरह से मारपीट करके घायल कर दिया गया। युद्ध शुरू हो गया। सिक्ख व ब्रिटिश सैनिकों के तेजधार हथियार एक दूसरे पर धड़ाधड बरसने लगे। मैदान लहूलुहान हो गया। वहां से घायल वंस एगन्यू व विलियम ऐंडरसन को ब्रिटिश सैनिक पनाह यानि ईदगाह में ले गए। मुलतानी सैनिकों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति नफरत की ज्वाला पूरी तरह भडक़ चुकी थी। 20 अप्रैल 1848 की सांय सिक्खों का झुंड वंस एगन्यू और विलियम एंडरसन की पनाहगाह में घुस गया और दोनों ब्रिटिश अफसरों को मार दिया। यहीं से बंगला के निर्माणकर्ता वंस एगन्यू की जिंदगी के सफर की आखरी राह बंद हो गई। इधर वंस एगन्यू की ओर से बनाया गया बंगला की निगरानी के लिए सिरसा के डिप्टी कमिशनर जे.एच.ओलिवर को कमान दी गई। उन्होंने यहां बरसों तक अपनी धाक जमाई और फाजिल्का को विकास की राह पर अग्रसर किया। वंस एगन्यू का बसाए बंगले की धूम तो आज भी है, लेकिन उनके द्वारा निर्मित बंगला में वो शान नहीं रही। बाधा झील का अस्तित्व भी खत्म हो गया। रह गया तो सिर्फ उनकी यादें, जो इतिहास के पन्नों पर है। 
--LACHHMAN DOST FAZILKA-
Builder of bungalow
Once Agnew's journey from Calcutta to Multan
. No such city is settled. But the city itself settles itself, but there is of course someone's hand, cooperation and support from him. There was such a man, Vans Agnew i.e. Patrick vans Agnew Vans Agnew was his Sir Name. His real name was Patrick Alexander. After getting the Sir name, his name Patrick Alexander vans Agnew fell. Once Agnew was a British officer who also had knowledge of Punjabi language. They have a significant contribution in the path of settling their Fazilka. During the mention of the bungalow's story in the history of Fazilka, there must be mention of Vans Agnew with the name of Muslim Fazal Khan Vattu. Following on the map steps of the father, Vans Agnew, who was admitted to the British Army, was posted in the Bengal Civil Services. After this he was deployed as Assistant Superintendent of Bhatiana by the British Government. He specializes in the art of a political officer. Although his age was low. But his performance in British officers was good. His favorite work was to populate cities. Where did he go? His pride in the development of the cities remained. Whether it is Fazilka or Lahore He kept in three things, first thing, what is the right place to start something? What other people should meet or hear? The third thing in his mind was that what is the most important task, which is done on priority basis. Based on this thinking, he worked primarily in settling the city of Fazilka.
  British physicist Patrick Alexander van Agnue, the builder of the bungalow in Fazilka, served for only 7 years in the British Empire, but during this service he left many forgotten memories, which remained unmatched memories. In Calcutta, he lived for 3 years, he lived for two years in Fazilka. In Fazilka, he built a bungalow. The name of the area, named after it, was a bungalow. The bungalow built on the edge of Horsh Shoe Lake has been far away. After the prosperity of this town named Bangla, he was deployed in Lahore. From there there have been many sour experiences in traveling to Multan. If the second Anglo-Sikh war broke out in Multan, the final journey of their life ended.
    Once Agnu was born on April 21, 1822 in Nagpur, Patrick Vans Agnew's house. His mother's name was Katherine Fareser. His father was a lieutenant colonel in the Madras Army. Who participated in the Anglo Sikh war, 1845-1846 before the decisive battle of Sikhism and British Empire. Young Vance Agnew, who joined the Bengal Civil Service in March 1841, became the builder of the bungalow in Fazilka in 1844. He is the Nawab Muhammad Bahawal Khan of Bahawalpur ... From the place and construct a huge bungalow on the banks of the Barrier Lake i.e. Harsh Shu Lake. Every government and non-government work started to be done in the bungalow. People come from far away to come here to get justice. Bangla name climbed on every individual expression. Everyone started calling the name of Bangla. This is the reason that the name of the city used to be named bungala before the name of phazilka. Even the elderly still call the city down to Fazilka and bungalow more. Vans Agnew was a political British officer, for this reason every political leader had to come here. Not only the political leader, every British officer also goes here. In addition to Sirsa, meetings of the state of Satluj in Malwa, were started here. Under the leadership of a young officer, the name of Bangla became famous in only a few months. This is where the construction of Bangla Nagar started from here. Here, Vans Agnew built a bungalow in 1844; On the other hand, Diwan Mool Chand was appointed the governor of Multan.
          In exchange for this post, he used to pay Rs 20 lakh annually to the Lahore Government. While many historians have reported the payment amount of Rs 12 lakhs. After victorious in the battle of the all-rounds, the British traveled towards Lahore, then no one gave a protest against them. After all, the British army reached Lahore on February 20, 1846. In the meantime Bangla Nagar's publicity was spreading wings. There was a plan to settle a happy and happy city of Agnew, that Vans Agnew was given additional charge of Ferozpur on 13-12-1845 from here. Where he stayed from 23-02-1846. After that, Agnew was transferred to Lahore. Lahore was the capital of the Sikhs. Even there, Van Agnew proceeded towards the development of the city, and gradually the preparations for the second war against the British in Chilianwala, Gujarat, Ram Nagar and Lahore began to begin.
            After the first Anglo-Sikh war, 1845-1846, the British had occupied Jalandhar Doab. After the war, the Sikhs were weakened. The British government took control of the governance system. From the time of the British Maharaja Ranjit Singh, the policy of enclosing Lahore was made. When the British arrived in Lahore, he fixed an annual pension of 1.5 lakh rupees to Maharani Jind Kaur, a wife of Maharaja Ranjit Singh. Which was later made 48 thousand rupees annually. She was first sent to Shekhu Pura and later to Banaras. Another reason for the war was that the first Anglo Sikh had made a sense of revenge for the defeat in the war, in the heart of Angaz

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Sep 13, 2018

Mahajani in the south east, village of Wattu, Chishti and Bodla in north west

दक्षिण पूर्व में महाजनी, उत्तर पश्चिम में वट्टू, चिश्ती और बोदला के गांव


         सबसे पहले पश्चिम की तरफ से आए वट्टू, चिश्ती व बोदला जाति के लोगों ने दरिया किनारे बसेरा किया। ओढ़ जाति अबोहर रोड के आसपास बस गई। इन गांवों पर ममदोट और बहावलपुर के नवाबों का नियंत्रण था। जो कि लड़ाईयों द्वारा स्थापित किया हुआ हैं। इन पर 13 अगस्त 1809 से 17 अप्रैल 1826 तक सादिक मुहम्मद खां द्वितीय का नियंत्रण था। बाद में 19 अक्तूबर 1843 तक मुहम्मद बहावल खां तृतीय ने अपनी धाक जमाई। धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ 129 गांव बने, इनमें मुख्य गांव मलोट था। दक्षिण पूर्व की तरफ 45 महाजनी गांव थे। उत्तर पश्चिम की तरफ वट्टू चिश्ती जाति के 80 गांव और बोदला के 39 गांव थे। अंग्रेजों के आने पर सतलुज दरिया के नीचे का भू-भाग बहावलपुर के नवाब  मुहम्मद बहावल खां तृतीय ने त्याग दिया। -LACHHMAN  DOST   FAZILKA-
Mahajani in the south east, village of Wattu, Chishti and Bodla in north west
         First of all, the people of the Wattu, Chishti and Bodala's who came from the west, lived in the riverside. Oudh caste settled around Abohar Road. These villages were under the control of the Nawabs of Mamdot and Bahawalpur. Which are established by the fight. These were the control of Sadiq Muhammad Khan II from 13 August 1809 to 17 April 1826. Later on 19th October 1843, Muhammad Bahawal Khan III took his courage. Slowly, towards the south, 129 villages were built, Malout was the main village. There were 45 Mahajani villages on the southeast side. On the north west, there were 80 villages of Vatu Chishti caste and 39 villages of Bodla. On arrival of the British, the land under the Sutlej River was abandoned by Nawab Muhammad Bahawal Khan III of Bahawalpur.

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Sep 12, 2018

वट्टू और बोदला के रीति-रिवाज

निकाह कबूल है!
वट्टू और बोदला के रीति-रिवाज
     वट्टू और बोदला जाति के मुरुलमानों के रीति-रिवाज आपस में मिलते-जुलते थे। उनके विवाह की रस्में इक्सवीं सदी के मुसलमानों से कुछ भिन्न थे। ब्रिटिश साम्राज्य में फाजिल्का के सेटलमेंट अधिकारी रहे जे. विल्सन ने मुस्लिम जाति के रीति-रिवाजों पर बारीकी से जांच की और वट्टू व बोदला जाति के रीति-रिवाजों में समानता पाई। जे. विल्सन के अनुसार मुस्लिम जाति की लडक़ी का पिता लडक़ी का निकाह करता था तो वह लडक़े के परिवार की ओर से अपनी लडक़ी के लिए पैसे की मांग करता था। लडक़ी के निकाह के बाद वह पैसा लडक़ी की जायदाद बन जाती थी। मगर जब ब्रिटिश साम्राज्य में मैरिज एक्ट बना तो ब्रिटिश नियमों में मुसलमानों को पुराने रीत रिवाज निभानें में काफीं मुश्किलें पेश आने लगी। नियम लागू होने के बाद जब कोई मुसलमान लडक़ी-लडक़े का रिश्ता जोड़ता तो उन्हें कानून को सबूत देना पड़ता था। जो बोदला और वट्टू जाति की लडक़ी और लडक़े के पिता के लिए एक नियम बन गया। 

     नियम अनुसार कोई मुस्लिम परिवार अपने बेटे की शादी करता तो उन्हें गवाह के तौर पर काजी और मौलवी को बुलाना पड़ता था। शादी में इजाब काबुल को सेवा के लिए बुलाया जाता था। जो शादी करने वाले माता-पिता से पूछते थे कि वह अपने बेटे या बेटी के निकाह को तैयार हैं। एक अन्य नियम मुताबिक लडक़े से भी शादी के लिए पूछा जाता था। जब तक लडक़ा शादी के लिए हां नहीं कहता था, तब तक शादी नहीं होती थी। शादी से पहले अगर लडक़े की मौत हो जाती तो लडक़ी को निकाह करने पर विचार करने का मौका नहीं दिया जाता था। बिरादरी में लडक़ी को विधवा घोषित कर दिया जाता था। विधवा घोषित हो जाने के बाद भी रस्में लगातार जारी रहती थी। सगाई के बाद निकाह की रस्में होती रहती और निकाह कर दिया जाता था। निकाह की रस्में दोबारा नहीं होती थी। इन नए रीति-रिवाजों के कारण यह तय हो गया कि लडक़ी का पिता निकाह के समय जो धन लडक़े वालों से लेता था, वह वापस नहीं किया जाता था। यह लडक़ी और लडक़े के पिता के बीच गवाहों के सामने एक समझौता होता था। उसके बाद ही असली रिश्ता होता था। फाजिलका के दूसरे मुस्लमानों की ओर से काजी और मौलवी को बुलाया जाता था। जो नवविवाहित जोडी को आशीर्वाद देते थे। बोदला, वट्टू, भट्टी और जाईया अंगूठी या कोई अन्य सोने का आभूषण साथ देते थे और कपड़े का आदान-प्रदान करते थे। मुंह की मिठास के लिए चीनी या गुड़ दिया जाता था। 
      ब्रिटिश अधिकारी जे. विल्सन मुसलमानों की शादियों की बारीकी से जांच की और जांच के बाद 1882 ई. में उन्हें मान्यता दी। उनके बनाए गए इस नियम पर फाजिलका और सिरसा में विवादित मामले कम थे। फाजिलका में 9 और सिरसा में सिर्फ पांच फाइले ही विवादित थी।(Lachhman Dost Fazilka)
The marriage is confessed!
Customs of Wattu and Bodla
     The customs of the Mulim of the Wattu and the Bodlas were similar among themselves. The rituals of their marriage were a little different from the Muslims of the XX century. Fazilka's settlement officer in the British Empire, J. Wilson examined the customs of the Muslim race closely and found the similarities in the customs of the Wattu and Bodla castes. J. According to Wilson, the father of a Muslim caste used to marry a girl, then she asked for money for the girl's family on behalf of the girl's family. After the marriage of the girl, that money would become the property of the girl. But when the Marriage Act was made in the British Empire, there was a lot of difficulties in the British rules, to the Muslims in ancient rituals. After the rule was enacted, when a Muslim related the relationship of the girl-girl, they had to give evidence to the law. Which became a rule for the father of Bodla and Wattu caste and the father of the girl.
     According to the law, when a Muslim family married his son, he had to call Kaji and Maulvi as a witness. Ezab Kabul was called for service in marriage. Who asked the married parents to prepare for the marriage of their son or daughter. According to another rule, the girl was asked for marriage too. Until the boy did not say yes to the marriage, the marriage was not there. If the girl dies before marriage, then the girl was not given the opportunity to consider marrying. The girl was declared a widow in the community. Even after the widow was declared, the rituals continued. After the engagement, rituals of marriage and marriage were done. The rituals of marriage did not repeat. Due to these new customs, it was decided that the girl's father who used to take money from the fighters at the time of her marriage did not return. This was an agreement between the girl and the girl of the girl in front of the witnesses. After that there was a real relationship. Kazi and Maulvi were called on behalf of the other Muslims of Fazilka. Who blessed the newly married couple. Bodla, Wattu, Bhatti and Jaya ring or any other gold ornament
ornaments and used to exchange clothes. Sugar or jaggery was given to sweetness of mouth.
      British officer J. Wilson examined the weddings of Muslims closely and after examination he recognized them in 1882. The disputed cases were less in Fazilka and Sirsa on this rule made by them. Only 9 files in Fazilka and 5 files in Sirsa were disputed.

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Sep 11, 2018

Chishti used to call Sheikh Farukhi

शेख फरूखी कहलाना पसंद करते थे चिश्ती
Fazilka Clock Tower
फाजिल्का में बसने वाले मुस्लिमों के पूर्वज विदेशी थे। ब्रिटिश साम्राज्य के भटियाणा (जिला सिरसा) के सेटलमेंट अधिकारी जे.विल्सन ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में इन जातियों से विस्तृत बातचीत की तो मुस्लिम जाति ने खुद माना कि वे शेख सैय्यद, पठान, मुगल और बलोच की तरह विदेशी हैं। मुसलमानों की कुछ जातियां ऐसी भी थी जो यह दावा करती थी कि उनकी जातियां अरब देश से आई हैं। इनमें चिश्ती जाति के मुस्लमान भी शामिल थे। इस क्षेत्र में उनका पहला आगमन पश्चिम की तरफ से हुआ। उनकी अनेकों पीढिय़ां देश के इस हिस्से में रही हैं। चिश्तियों का कबीला पवित्र माना जाता था। वह धार्मिक स्वभाव के थे और दावा करते थे कि वह पवित्र व्यक्ति हैं। चिश्ती खुद को उमर की पीढ़ी मानते हैं, जो बलख, शाम और काबुल के सुल्तानों के साथ पैगम्बर मुहम्मद के साथी थे। चिश्ती खुद को शेख फरूखी कहलाना पसंद करते थे। इनके नवीनतम बुजुर्ग जनाब खवाजा फरीद-उद-दीन थे। जो बाबा फरीद शकरगंज के नाम से मशहूर थे। बाबा फरीद ने पंजाब के विभिन्न हिस्सों में प्रचार किया। वह मुलतान से सिरसा पहुंचे और वहां उन्होंने 40 दिन का उपवास रखा। सिरसा से बाबा फरीद दिल्ली पहुंचे। जहां वह कुत्तुबदीन (दिल्ली) के अनुयायी बन गए। कुत्तुबद्दीन से धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्थाई तौर पर चवाधन में डेरा डाल लिया। यहां उनकी मान्यता के बढऩे का क्रम जोर-शोर से शुरू हुआ। यह इलाका आजकल पाकपटन (पाकिस्तान) के नाम से जाना जाता है। उनकी मजार और परिवार आज भी पाकपटन में है। जहां बाबा फरीद की दरगाह पर भारी मेला लगाया जाता है। चिश्तियों के बुजुर्गों ने पाकपटन से सतलुज दरिया उन्नीसवीं सदी में चार पीढियां पहले पार किया और दरिया के इस ओर के इलाके में आकर बस गए। जो उस समय आबाद नहीं था। यहां से चिश्ती जिला सिरसा में फैल गए। उस समय चिश्ती जाति के मुसलमानों के जिला 9 गांव थे। इसके अलावा बहावलपुर (पाकिस्तान)में चिश्तीयों के 50 गांव और मिन्टगुमरी (पाकिस्तान) में 25 गांव थे। चिश्तियों की करीब 500 जातियों को 6 से 9 अप्रैल 1881 तक मान्यता दी गई। ब्रिटिश साम्राज्य के कानून से मान्यता प्राप्त करते समय उनके 6 प्रतिनिधि मौजूद थे। सतलुज दरिया के किनारे बसने वाले चिश्तियों के आसपास वट्टू और बोदला जाति के मुस्लमानों का कबीला निवास करता था। वट्टू जाति के कबीले के साथ तो वह अपनी नजदीकी मानते थे। मगर वे मानते थे कि बोदला कबीले के साथ उनका किसी भी तरह का रिश्ता नहीं था। फाजिल्का क्षेत्र में चिश्ती कबीले के मुस्लिम चूहड़ी वाला चिश्ती, पक्का चिश्ती से गांव लोकिया (पाकिस्तान) तक फैले हुए थे, लेकिन भारत विभाजन के बाद वे इस क्षेत्र को छोडक़र पाकिस्तान में जाकर बस गए। 
-LACHHMAN DOST FAZILKA-
Chishti used to call Sheikh Farukhi

   The ancestors of the Muslims who settled in Fazilka were foreigners. In the last years of the nineteenth century, the settlement officer J. Wilson of Bhatiya (District Sirsa) of the British Empire, had detailed talks with these castes, the Muslim caste himself admitted that he was foreign like Sheikh Sayyed, Pathan, Mughal and Baloch. There were also some castes of Muslims who claimed that their castes came from Arab countries. Among them, Chishti caste Muslims were also included. His first arrival in this area was from the west side. His many generations have lived in this part of the country. The tribe of Chishti was considered sacred. He was of a religious nature and claimed that he was a holy person. Chishti considers himself a generation of Omar, who was a companion of prophet Muhammad along with the sultans of Balakh, Sham and Kabul. Chishti used to like himself as Sheikh Farukhi. His latest elderly sage Khawaja Fareed-ud-Din was. Who was famous as Baba Farid Shakarganj. Baba Farid preached in various parts of Punjab. He reached Sirhna from Multan and there he kept 40 days fast. Baba Farid from Sirsa reached Delhi. Where he became a follower of Kutubdin (Delhi). After receiving religious education from Kutubuddin, he permanently camped in Chawadhan. Here, the order of the increase of their recognition began with loud noise. This area is now known as Paktan (Pakistan). His mazar and family are still in Pakapatna. Where a huge fair is organized at the dargah of Baba Farid. The elderly of the Chishti crossed the Satluj Darya from Paktan in the nineteenth century before four generations and settled in this area of ​​the river. Which was not populated at the time. From here the Chishti district spread to Sirsa. At that time there were nine villages in the Chishti caste's Muslim district. Apart from this, there were 50 villages of Chistians and 25 villages in Mantunguri (Pakistan) in Bahawalpur (Pakistan). About 500 castes of Chishti were recognized from 6 to 9 April 1881. While attaining recognition from the law of the British Empire, there were 6 representatives present. The tribe of Muslims of the Vatu and Bodla tribes lived near the Chishts settling along the Sutlej Darya. With the tribe of the Vatu caste, he used to be close to him. But he believed that he did not have any kind of relationship with the Bodolal clan. The Chishti of Chishti clan of Chishti clan in the district of Fazilka was spread from chuhri wala Chishti to village Lokiya (Pakistan), but after the partition of India, they settled in Pakistan leaving this region.

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Sep 10, 2018

Civil Hospital Fazilka

Civil Hospital Fazilka was Established in the Year 1909 
Ladies Hospital Fazilka 1913
1913


-Government Senior Secondary School (Boys) Was Established in the Year 1926, 
Famous GOL KOTHI within the school campus was the Recreation Club of the Britishers.
Gol Kothi 1914

-Before Partition Fazilka Was the Biggest Wool Market in the Asia.(Lachhman Dost Fazilka)
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Sep 7, 2018

Interesting story - Bodla Kabila

दिलचस्प है बोदला कबीला की दास्तान 

Moh. Sarwer Bodla

      एक छोटा सा, किन्तु महत्वपूर्ण परगना, बोदला का भारत आगमन आज से करीब 500 साल पहले हुआ था। 1500 ई. के आसपास बोदला जाति के लोगों के  पूर्वज शहाब-उल-मुल्क उर्फ शेख शहाबुद्दीन अरब देश से भारत आया था और मुलतान के ख्वाजा मुहम्मद इराक आजमी का अनुयायी बन गया। एक दिन संत ने शहाब-उल-मुल्क से कहा कि वह उनके दिल की खुश्बू हैं।
उनसे आशीर्वाद मिलने के बाद शहाब-उल-मुल्क की पीढ़ी बोदला कहलाने लगी। इसके बाद शहाब उल-मुल्क सतलुज दरिया के निकट बहावलपुर क्षेत्र में नजदीकी गांव खाई में जाकर बस गये। जो फाजिल्का से 70 मील दूर दक्षिण-पश्चिम की तरफ  था। यहीं से बोदला परगणा के बसने की शुरूआत हुई। परगना बोदला खुद को शहाब-उल-मुल्क की अगली पीढ़ी मानते थे और खुद को शेख सद्दीकी कहलाना पसंद करते थे। वे दावा करते थे कि वे पवित्र आदमियों में हैं। वह इज्जत से संसारिक पवित्रता और खुशियां मान सकते हैं। मगर इन चीजों की ओर उनका झुकाव कम था। फाजिल्का में बोदला परगना के बसने की दास्तां बड़ी दिलचस्प है। परगना के दो छोटे बोदला परिवार खाई से सीधे इस इलाके में आकर बस गए। सन् 1800 के आसपास इनमें से एक का घग्गर के किनारे डबवाला तहसील के क्षेत्र रंगा नाम के इलाके में कब्जा था। दूसरे बोदला परिवार का कब्जा सरावां और चार अन्य गांवों में था, जो कि फाजिल्का के इलाके में थे। यह भी बताया जाता है कि एक बड़े कबीले के रूप में बोदलों का आगमन चार पीढ़ी पहले मोहकम दीन के अगुवाई में हुआ। जो खाई से वाया संगरूर ,फरीदकोट होते हुए फाजिल्का शहर के उत्तर दिशा की तरफ गांव आहल में आकर बस गए। तब इस इलाके में जनसंख्या ज्यादा नहीं थी।
मगर जब इनकी संख्या में इजाफा हुआ तो उन्होंने आहल बोदला, बहक बोदला व आसपास के इलाके में फैलना शुरू कर दिया। फाजिल्का से मात्र 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव बहक बोदला में इनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। परगना का नेता मुहम्मद सरवर बोदला की हवेली का कुछ हिस्सा आज भी गांव बहक बोदला में मौजूद है। जहां वह नमाज पढ़ते थे। वह मस्जिद भी मौजूद है। आहल और बहक बोदला सहित करीब चार दर्जन गांवों में बसा बोदला परगना के लोग शरीर के लम्बे ,मोटे और मंसल चेहरे वाले थे। उनके नाक और होंठ बहुत बड़े थे। जिस कारण उनका बड़ा और छोटा मुंह बड़ा ही कमजोर नजर आता था। उनकी भाषा और रिवाज वट्टू और बाकी पंजाबी मुसलमानों की तरह थे, लेकिन बताते है कि वह शादियों के कारण उनसे जुदा हो गए। चिश्तीयों से तो उनका कोई नाता नहीं था और बाकी सिक्खों के साथ भी कोई रिश्ता नहीं था। बहक परगना 48 गांवों में काबिज था। जिनमें से अधिकांश परगना बहक के आसपास थे जो कि सतलुज दरिया के किनारे पर था। इसके अलावा उनके पास 20 गांव मिन्टगुमरी, 14 गांव फिरोजपुर, 6 गांव बहावलपुर, 4 गांव बीकानेर और 4 गांव लाहौर में थे। घग्गर और डब्बवाली तहसील में भी इनके कुछ गांव थे। संभवत: परगना के गांवों की संख्या 60 के आसपास थी। फाजिल्का इलाके में उनका ठिकाना गांव अरनीवाला शेख सुुभाण, वल्लेशाहके, नूरशाहके, टाहलीवाला बोदला, आहल बोदला, बहक बोदला और बहक खास आदि गांवों में था। 1800 ई. के आसपास तो वे सियासत में रूचि नहीं लेते थे। मगर मुहम्मद सरवर बोदला के समय से वह सियासत में भी कूद पड़े। सतलुज दरिया के किनारे बसे वट्टू और चिश्ती के अलावा बोदला कबीले के लोग इलाके में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। उनके नाम की धूम दूर-दूर तक थी। मीठा व धार्मिक स्वभाव और आर्थिक तौर पर सम्पन्न परिवार होने के कारण लोग उनकी इज्जत करते थे। उनके पड़ोसी उनके संत स्वभाव का आदर करते थे और इसके लिए पड़ोसी उनके हर काम में अहमियत देते थे। जिससे उनके रूतबे की खासियत को और बढ़ावा मिला, इसका प्रभाव उनके कबीलों के रिवाजों पर भी पड़ा। उनके लिए यह सोचा जाता था कि वो किसी को भी श्रॉप दे सकते हैं। इसके लिए कई मिसाल हैं कि उन्होने बुरी आत्माओं को अपने वश में करके अपने दुश्मनों पर छोड़ा। उनके हाथ में एक खूबी यह भी थी कि वो पागल कुत्ते या भेडिय़े के काटे का इलाज कर सकते थे। हिन्दु और मुसलमान दोनो कुत्ते के काटे जाने पर उनकी सेवाएं लेते थे। कुत्ते के काटने के बाद चमत्कारी ढ़ंग से घायल व्यक्ति ठीक भी हो जाता था। परगना सन् 1850 तक एक ग्रामीण कबीले की शक्ल में था। मगर धीरे-धीरे वह आर्थिक रूप से मजबूत होता गया। उनका अधिकतर धन घोड़ों और दुधारू पशुओं के रूप में था। शुरूआत में उनका मुख्य कार्य पशु पालना था। उनके पास बड़ी संख्या में दुधारू पशु और भेड़-बकरियां थी। जिन्हें घास चराने के लिए वह सारे इलाके में जाते थे। दरियाई इलाका होने कारण पशुओं के लिए हरे चारे की कमी नहीं थी। इन्हें बाद में परगना बहक कहा गया। जो आहल गांव की बर्बादी के बाद बोदला जाति का मुख्य गांव था। जब वह सम्पन्न परिवार हो गए तो उन्होंने कृषि का कार्य और पशु पालना छोड़ दिया। वह अपने धन को व्यर्थ कार्यों में लगाने लगे। वह कृषि खुद करने की बजाए मजदूरों से करवाने लगे। जिस जागीर के मालिकाना हक उन्हें 1858 में दिए गए थे। वो जागीर अब उनके हाथों से निकलकर सिक्खों के हाथों में जा रही थी। उनके कृषि मजदूर यानि सीरी ज्यादातर मुसलमान थे, जो उनको समय पर फसल का हिस्सा देते थे। इस इलाके पर नवाब ममदोट अपना कानूनी अधिकार समझता था और अपना दबदबा कायम रखना चाहता था। नवाब ममदोट की सियासी तौर पर स्थिति काफी मजबूत थी और जमीन जायदाद का एक बड़ा हिस्सा उनके पास था। वह दरिया के आसपास बसे लोगों से कर (टैक्स) वसूलता था। मगर कुछ देर तक कर देने के बाद बोदला कबीला ने कर देना बंद कर दिया। जिस कारण बोदला कबीला का नवाब ममदोट से झगड़ा शुरू हो गया। धीरे-धीरे बोदला आर्थिक तौर पर मजबूत हो गए और नवाब ममदोट का मुकाबला करने की स्थिति में आ गया। वर्षों तक संघर्ष के बाद यह इलाका ममदोट के अधिकार से छीन लिया गया। नवाब ममदोट के कब्जे से मुक्त हुआ बहक परगने को 1858 मे फिरोजपुर से काटकर जिला सिरसा से जोड़ दिया गया। यह ब्रिटिश सम्राज्य के बंदोबस्त अफसर ब्रेंडब्रैथ ने सन् 1857-58 में निर्धारित किया था। इसके बाद मिस्टर ब्रेंडब्रैथ का तबादला हो गया।
10 दिसंबर 1885 को जब फाजिल्का तहसील को जिला सिरसा से काटकर जिला फिरोजपुर से जोड़ा गया तो यह परगना भी जिला फिरोजपुर से जुड़ गया। इसके बाद तो परगना बहक फाजिल्का में काफी मजबूत होता गया और क्षेत्र के निकट के कई इलाकों में फैल गया। जिला फिरोजपुर में बोदला की 749 जातियों को 6 से 9 अप्रैल 1881 तक मान्यता दी गई। बोदला जातियों को मान्यता दिलाते समय उनके 19 प्रतिनिधि मौजूद थे। भारत विभाजन हुआ तो यह परगना पाकिस्तान चला गया।
-Lachhman Dost, Writter Fazilka Ek Mahagatha -
Interesting story - Bodla Kabila
      The arrival of a small, but important Parghana, Bodla, came about 500 years ago from today. Around 1500 AD, the ancestral Shahab-ul-Mulk alias Sheikh Shahabuddin, of the people of the Bodolas, came to India from the Arab country and became the follower of Khwaja Muhammad of Iraq's Azmi. One day the saint told Shahab-ul-Mulk that he is the smell of his heart. After receiving blessings from them, the generation of Shahab-ul-Mulk was called Bodla. After this Shahab ul-Mulk settled in the nearby village ditch in Bahawalpur area near Sutlej Dariya. Which was 70 miles southwest of Fazilka. From here it started the settlement of the Vadodara paragana. Pargana Bodala considered himself the next generation of Shahab-ul-Mulk and preferred to be called Sheikh Saddi. They used to claim that they were in the holy men. He can honor worldly holiness and happiness. But their tendency towards these things was low. The tales of settling of the Padola pargana in Phazilka are very interesting. Two small bodla families of Pargana settled in the area directly from the ditch. Around 1800, one of them was occupied by the area of ​​Dagvala tehsil on the side of Ghaggar in the area called Ranga. The possession of the other Bodalala family was in Saravana and four other villages, which were in the area of ​​Fazilka. It is also said that the advent of Bodhals in the form of a large tribe was led by Mahakal Din, four generations ago. From the ditch, through Vaiya Sangrur, Faridkot settled in the village Aihil towards the north side of Fazilka city. Then the population was not much in this area. But when the number of them increased, they started spreading in a lot of bodla, delusional baudla and surrounding areas. Their remains can still be seen in Village Bhahak Bodla, located just 11 kilometers away from Phazilka. A part of the pargana leader Muhammad Sarwar Bodala's mansion is still present in village Bhavad Bodla. Where he used to pray namaz. The mosque is also present. People from Bodla Pargana settled in about four dozen villages, including Ahl and Bhavak Bodala, who were tall, thick and masal-faced in the body. His nose and lips were very big. Because of which his big and small mouth was very weak. His language and rituals were like Vatu and the rest of the Punjabi Muslims, but they show that he got separated from them because of weddings. There was no relationship with the Chishtians and there was no relation with the rest of the Sikhs. Dahac Pargana was occupied in 48 villages. Most of which were around Paragana Bhayak, which was on the banks of the Satluj Darya. Apart from this, he had 20 villages in Minanguri, 14 villages in Ferozepur, 6 villages in Bahawalpur, 4 villages in Bikaner and 4 villages in Lahore. There were also some villages in Ghaggar and Dabwali tehsil. Probably, the number of villages of Pargana was around 60. In the district of Phazilka, his village was in the villages of
Arniwala Sheikh Subhan, Valleshwar, Nurshahke, Tahliwala Bodlala, Azhal Bodlala, Bhavak Bodlala and Bhakk special. In 1800 AD, he did not take interest in politics. But from the time of Muhammad Sarwar Bodhla, he also jumped into politics. Apart from Vattu and Chisti settled on the banks of Sutlej Dariya, people of Bodla tribe kept important places in the area. The fame of his name was far and wide. People used to respect them because of their sweet and religious nature and financially prosperous family. Their neighbors respected the nature of their saint and for this, the neighbors gave importance to their work. This led to the promotion of the status of his rathab, which also affected the customs of his family. It was thought for them that they could give a shroud to anyone. There are many precedents for them that they have left the evil spirits under their control and left them on their enemies. There was also an impression in his hand that he could cure a mad dog or wolf bite. Both Hindus and Muslims used to take care of their dogs when they were bitten. After the bite of the dog, the miraculously injured person was also cured. Pargana was in the shape of a rural tribe till 1850. But gradually it became financially strong. Most of his money was in the form of horses and milch animals. Initially his main task was to bring cattle. He had a large number of cattle and sheep. Those who used to go to the whole area to feed grass There was no shortage of green fodder for cattle due to the riverine terrain. These were later called paragana devas. Which was the main village of Bodla caste after the ruin of Ahl village. When he became a close family, he left the work of agriculture and cattle cows. He started putting his wealth in vain work. Instead of doing the farming themselves, they started working with the laborers. The landowner's possession was given to them in 1858. The manor was now leaving his hands and going to the hands of the Sikhs. Their agricultural laborers, i.e. serie, were mostly Muslims, who gave them part of the crop at the time. Nawab Mumdot considered his legal authority on this area and wanted to maintain his dominance. Nawab Mumdot's political situation was very strong and he had a big share of the land property. He used to tax the people settled around the river. But for a while, the Bodla tribe stopped paying taxes. As a result, a dispute started with the Nawab Mamdot of Bodla tribe. Slowly Padilla became financially strong and Nawab came to terms with Mamadot. After the struggle for years, the area was snatched from Mmdot's right. The disgusting pargana, which was liberated from the possession of Nawab Mammadot, was merged with Ferozepur in 1858 to the district Sirsa. It was determined by Brendbrath, the governing British Empire, in 1857-58. After this Mr Brandbraith was transferred. When on December 10, 1885, when Fazilka tahsil was cut from district Sirsa and connected to the district Ferozpur, this paragana also got attached to the district Firozpur. After this, Paragana Bahaka became very strong in Phazilka and spread to many areas near the area. 749 castes of Bodla were recognized from 6 to 9 April 1881 in District Firozpur. Recognizing Bodla castes, 19 representatives were present. If India was partitioned then this paragana went to Pakistan.
-Lachhman Dost Writter Fazilka Ek Mahagatha 

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Sep 6, 2018

आज के दिन शुरू हुआ था भारत पाक युद्ध 1965

आज के दिन शुरू हुआ था भारत पाक युद्ध 1965
 आसफवाला शहीदी स्मारक
  देश प्रेम और धार्मिक आस्था का अनूठा संगम
यह न तो मंदिर है और न ही मस्जिद, गुरूद्वारा या चर्च, इसके बावजूद यहां आने वाला हर व्यक्ति श्रद्धा से शीश झुकाता है। यानि देश प्रेम और धार्मिक आस्था का प्रतीक। जी हां, हम बात कर रहे हैं फाजिल्का से सात किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर भारत-पाक सरहद के निकट आसफवाला शहीदी स्मारक की,
जहां जहां 4 जाट बटालियन के 82 शहीदों की चिता स्थल बनाया गया है। इस स्मारक में ही फाजिल्का सेक्टर में शहीद 15 राजपूत, 3 आसाम बटालियन और 18 अश्वाराहेही सैनिक बटालियन के शहीद सैनिकों के स्मृति स्तम्भ भी सम्मिलित हैं। स्मारक देश ही एक मात्र ऐसी स्मारक है, जहां विभिन्न राज्यों के 206 शहीद जवानों की अस्थियों का समावेश किया है। यहां 1971 के शहीद जवानों की 90 फीट लंबी और 18 फीट चौड़ी चिता बनाकर संयुक्त दाह संस्कार किया गया है। इन शहीदों की बदौलत आज हम हैं और हमारा फाजिल्का है।

अब बात करते हैं 1965 के युद्ध की। 6 सितंबर की सांय राजस्थान के रास्ते से दुश्मनों की घुसपेठ रोकने के लिए भारतीय सेना ने मोर्चा संभाल रखा था। दुश्मन भारतीय इलाके में घुस आया और सेना के साथ सुलेमानकी मुख्यालय व सीमा चौकियों के अलावा काफी क्षेत्र पर भी कब्जा कर लिया।
दुश्मन ने गोलाबारी की और साबूना बांध पर हमला कर दिया। तब 14 पंजाब रेजीमेंट के जवानों ने दुश्मन को करारा जवाब दिया। जब दुश्मन गांव चाननवाला के रेलवे लाइन के साथ-साथ फाजिल्का की तरफ बढ़ा तो फिरोजपुर से आई 3/9 गोरखा राइफल की दो कंपनियों के जवानों ने दुश्मन को रोक लिया। दुश्मन ने उन पर तीन हमले किए, लेकिन सेना डटी रही और दुश्मन आगे नहीं बढ़ पाया। आखिर 23 सितंबर को युद्ध समाप्ति की घोषणा हो गई।
Lachhman Dost Fazilka 

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Sep 4, 2018

Mr. SAVIKAR GANDHI - honored with the state level award

देश का अनोखा गावं - 
तीन तरफ से पाकिस्तान और चौथी तरफ से सतलुज दरिया-
गावं मुहार जमशेर - पाक सिर्फ २०० मीटर दूर - दरिया में बाढ़ हो -
या भारत पाक में तनाव - अध्यापक स्वीकार गाँधी ने यह कभी कहा कि वो इस स्कूल में बच्चों को शिक्षा नहीं देंगे - तभी तो पंजाब सरकार उन्हें राज्य स्तरीय पुरस्कार से नवाज़ रही है -
हक़दार हो श्री स्वीकार गाँधी जी - बधाई हो -
The unique village of India - from three sides Pakistan and from Satluj River-
village Muhar Jamsher - Pak only on the fourth side - Pak is just 200 meters away -
floods in the rivers - or tension in India-Pak teacher -
Savikar Gandhi has ever said that he has children in this school In the meantime, the Punjab government has been honored with the state level award -Congrats Mr. Savikar Gandhi G (Lachhman Dost)
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Before the settlement of Fazilka

Fazilka Ek Mahagatha


-फाजिल्का बसने से पूर्व बहावलपुर और ममदोट के नवाबों ने यहां कुछ छोटे - छोटे किले बनवाए , मगर उन की सरहदें सही ढंग से नहीं थी जब वट्टु और बहक परगना का आगमन हुआ तो उन्होंने सरहदें निर्धारित कर ली,
- 1844 में ब्रिटिश अधिकारिओं ने बहावलपुर के नवाबों से जगह का आदान प्रदान कर लिया और इस के बदले नवाबों को सिंध प्रान्त से कुछ जगह दे दी
-नवंबर 1884 में जब सिरसा जिले के दो हिस्से हुए तब पच्छिम का आधा हिस्सा फाजिल्का तहसील का था और 40 गावं डबवाली तहसील के थे जो फिरोजपुर के साथ जोड़े गए.



Before the settlement of Fazilka, the Nawabs of Bahawalpur and Mammadot built some small fortresses here, but their frontiers were not right when Wattu and Behak Pargana arrived, they set boundaries,
- In 1844, British officials exchanged space with the Nawabs of Bahawalpur and in exchange for this, the Nawabs gave some place from Sindh province
In November 1884, when Sirsa district had two parts, half of the western part was of Fazilka tahsil and 40 villages were of Dabwali tehsil, which were connected with Ferozepur.
-Lachhman Dost Fazilka-
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Sep 3, 2018

-Guru Nanak Darbar New Abadi Islamabad Fazilka-

ਗੁਰੂਦੁਆਰਾ ਨਾਨਕ ਦਰਬਾਰ ਨਵੀਂ ਆਬਾਦੀ ਇਸਲਾਮਾਬਾਦ ਫਾਜ਼ਿਲਕਾ 

ਦਾਸਤਾਨ - ਭਾਰਤ ਵਿਭਾਜਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇਸ ਜਗਾਹ ਤੇ ਮਸਜਿਦ ਸੀ, ਵਿਭਾਜਨ ਦੋਰਾਨ ਇਸਾਈ ਸਮੁਦਾਏ ਦੀ ਮਹਿਲਾ smt. ਮਰੀਅਮ (New Abadi Islamabad) ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਲੈ ਕੇ ਆਈ ਤੇ ਇਥੇ ਗੁਰੂਦੁਆਰਾ ਬਣਾ ਕੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਕਰ ਦਿਤਾ, ਅੱਜ ਸਭ ਧਰਮਾਂ ਦੇ ਲੋਗ ਇਥੇ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਸਿਰ ਝੁਕਾਉਂਦੇ ਹਨ
-Guru Nanak Darbar New Abadi Fazilka 
Dastan- India Vibhajan se pehle yha Masjid thi. Vibhajan ke baad Isaee Samudaye ke Orat Smt. Mariam Pakistan se GURU GRANTH SAHIB le ker ayee or yaha GURU DUARA bna ker parkash kiya- ab log yha sradha se sir ukate hai. 
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Sep 2, 2018

Village Jandwala meera Sangla (Fazilka)

Village Jandwala meera Sangla (Fazilka)

ਬੜੀ ਮਜੇਦਾਰ ਕਹਾਣੀ ਹੈ ਪਿੰਡ ਜੰਡ ਵਾਲਾ ਮੀਰਾ ਸਾਂਗਲਾ ਦੀ 
-photo 1930- right side Hagi bahawal khan Kuria zaildar-thx mahmood alam kuria

ਹਾਜੀ ਵਾਗੂ ਖਾਨ ਕੁਰੀਆ ਨੇ ਤਹਿਸੀਲਦਾਰ ਤੋਂ ਅਲਾਟ ਕਰਵਾਇਆ ਸੀ ਪਿੰਡ 
ਉਸ ਦੇ ਪੁੱਤਰ ਮੀਆਂ ਬਹਾਵਲ ਖਾਨ ਕੁਰੀਆ ਜੈਲਦਾਰ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜਾ ਮੀਆਂ ਮੁਹਮੰਦ ਖਾਨ ਕੁਰੀਆ ਸੀ - ਮੀਆਂ ਬਹਾਵਲ ਖਾਨ ਕੁਰੀਆ ਜੈਲਦਾਰ ਦੇ ਤਿਨ ਪੁੱਤਰ ਤੇ ਮੀਆਂ ਮੁਹਮੰਦ ਖਾਨ ਕੁਰੀਆ ਦੇ ਵੀ ਤਿਨ ਪੁੱਤਰ ਸਨ - ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚੋ ਇਕ ਮੀਆਂ ਅਲਾਹ ਬਕਸ਼ ਜੈਲਦਾਰ ਸੀ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦਰਬਾਰੇ ਬਹੁਤ ਕੱਮ ਕਰਾਉਂਦਾ ਸੀ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਹੀ ਓਥੇ ਅਕਬਰ ਪੁੱਲ ਬਣਵਾਇਆ ਸੀ 
Gang Canal
Ik mazedaar kahani - Hagi Waggu khan kuria ne tehsildaar to alaot karwaya see pind - us de putter mian Bahawal khan kuria Jaildar see te dusra putter mian mohammad khan kuria - mian Bahawal khan kuria de three bete - te mian mohammad khan kuria de tin (Three) bete sn- ehna vichon ik mian Alah Baksh jaildaar seee te sarkare darbare bahut kamm karanunde sn- ohna ne hee othe Akbar pul banwaya see - 

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Sep 1, 2018

अजीब है चाननवाला रेलवे स्टेशन बनाने की दास्तान

        फाजिल्का से कराची तक रेल लाइन बिछा दी गई। 1898 में फाजिल्का का रेलवे स्टेशन बन गया। फाजिल्का से कराची तक जाने वाली रेलवे लाइन पर फाजिल्का के बाद चाननवाला रेलवे स्टेशन बनाया गया। जिसको बनाने की दास्तान बड़ी रोचक है। बस यूं समझ लें कि दो सम्पन्न परिवारों में अपने-अपने गांव में रेलवे स्टेशन बनवाने की होड़ थी।। वह परिवार थे चाननमल सावनसुक्खा और चौ. हजूर सिंह। दोनोंं को ही ऑनरेरी मजिस्ट्रेट की पावर प्राप्त थी। बात 1935 की है। जब गांव में अलग-अलग दो आनाज मंडिया बनवाई गई। जहां बहावलपुर तक का आनाज बिक्री के लिए मंडियों में आता था। बात थी रेलवे स्टेशन बनवाने की। दोनों परिवारों का कहना था कि उनकी मंडी के नजदीक और उनके नाम पर रेलवे स्टेशन बनाया जाए ताकि अन्य गांवों से आने वाले आनाज व अन्य सामग्री उनकी मंडी में पहुंचे। बात जिला फिरोजपुर के डीसी एम. आर. सचदेव तक पहुंची। उन्होंने मामले को सुना, समझा और फैसला सुनाया कि जो व्यक्ति अपनी मंडी सही व बढिय़ा ढंग से बनवाएगा। उसके गांव में रेलवे स्टेशन बनाने की मंजूरी दी जाएगी। देखो, देखी मंडी सुंदर बनाने का कार्य युद्ध स्तर पर शुरू हो गया। दिन-रात कार्य चला। मंडियों के चारों ओर सुंदर गेट बनाये गए। 13 फुट तक ऊंची चारदीवारी बना दी गई। रातो-रात गांव बस गए। दोनों मंडियों के आसपास रौंनके बढ़ गई। डी.सी. एम. आर. सचदेव ने मंडियों का दौरा रखा। मंडियों की एक-एक कलाकृति को चैक किया गया। आखिर डी.सी. ने फैैसला सुनाया कि जिला बोर्ड के सदस्य व सफेदपोश उपाधि से नवाजे जा चुके श्री चाननमल द्वारा बनाई गई मंडी बढिय़ा है और उनकी मंडी के निकट ही रेलवे स्टेशन बनाने की आज्ञा दे दी। देखते ही देखते चानणवाला मंडी प्रसिद्ध मंडी बन गई। जहां दूर-दूर से यहां अनाज पहुंचता। यहां से कच्चा माल अन्य शहरों में जाने लगा। यहां रेलवे का जंकशन बनाया गया। यहां से एक ट्रेन कराची तक चलती थी और दूसरी ट्रेन सुलेमानकी हैड तक चलती थी, जिसे के जरिए सामान भेजा जाता था। मंडी चाननवाला के मुख्य गेट व दीवार तो उखाड़ ली गई। उसके सबूत बाकी नहीं बचे, लेकिन मंडी हजूर सिंह की मंडी में बनाया गया गेट आज भी मौजूद है। उस गेट का नाम है सचदेव गेट। जो ऑनरेरी मजिस्ट्रेट व नगर कौंसिल फाजिल्का के उपाध्यक्ष स्व. हजूर सिंह की याद में श्री मोहरी राम चुघ व चौ. राज कुमार चुघ द्वारा बनवाया गया। इस गेट का उद्घाटन जिला फिरोजपुर के डिप्टी कमिश्नर श्री एम. आर. सचदेव ने 5 जून 1939 में किया गया। यहां उल्लेखनीय है कि डीसी एम. आर. सचदेव ने फाजिल्का के विकास में अहम योगदान दिया। इन्होंने ही एम. आर. कॉलेज का नींव पत्थर 4-7-1940 को रखा था।
The strange story of making Chananwala railway station
        A rail line was stretched from Fazilka to Karachi. In 1898, Fazilka became the railway station. Chananwala railway station was built after Fazilka on the railway line from Phazilka to Karachi. The story of making which is interesting is very interesting. Just understand that there was a competition for building two railway stations in their respective villages in two prosperous families. The family was Channamal Savansukha and Chau. Hazoor Singh Both of them received the power of the Honorary Magistrate. The point is 1935. When two Anaj Mandis were built in the village. Where to buy grains up to Bahawalpur, Mandi was in the market. It was a matter of constructing a railway station. Both families said that a railway station should be built near their mandis and in their names so that grains and other items coming from other villages reached their mandis. Talk of DC M.R. Ferozepur Reached Sachdev. They heard the case, understood and ruled that the person who made his own mandi right and better. The railway station will be approved in its village. Look, the beautification of the Mandi Mandi started at the war level. Working day and night. Beautiful gates were made around the mandis. Made up to 13 feet high walled. Roto-night village settled. Rumors have increased around the two markets. DC. M.R. Sachdev visited Mandi's tour. Each artwork of mandis was checked. After all, D.C. The decision was made that the Mandi made by Mr. Channamal, who was elected from the district board and the white collar degree, is better and ordered to build a railway station near his mandi. On seeing the Chananwala mandi became a famous mandi. Where the grain reaches farther away. From here the raw materials started going to other cities. Railway junction was built here. A train ran from here to Karachi and another train ran to the helmanki head, which was sent through the goods. The main gate and wall of Mandi Chanwala were overthrown. There is no evidence remaining, but the Gate built in Mandi Hajoor Singh Mandi is still present today. The name of that gate is Sachdev Gate. The Honorary Magistrate and Vice-President of Municipal Council Fazilka In the memory of Hazoor Singh, Mr. Mohi Ram Chugh and Chau Made by Raj Kumar Chugh This gate was inaugurated by Mr. M.R., Deputy Commissioner, Firozpur District. Sachdev performed on June 5, 1939. It is noteworthy that DC M. R. Sachdev made significant contribution in the development of Fazilka. He did the M.R. The foundation stone of the college was placed on 4-7-1940.-LACHHMAN DOST FAZILKA-

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Aug 31, 2018

Akbar Ali Pir became the first MLA in Fazilka

फाजिल्का में पहले विधायक बने अकबर अली पीर

2nd MLA in Fazilka Mia Bagh Ali sukhera special Envoy of the Viceroy of India visits sukhera family to Congratulate on the Glorious victory in the Elections(1945)...with A.C macleod commissioner of Jalandhar Divsion and Mia Bagh Ali Sukhera MLA in Fazilka and lives in sukhera Basti Abohar..(photo Courtesy :- Abohar Digital Museum History and memory)
भारत विभाजन से पूर्व फाजिल्का क्षेत्र में मुस्लिम अधिक संख्या में थे। 1941 की जनगणना के मुताबिक फाजिल्का तहसील में 75.12 प्रतिशत मुस्लिम थे। मुस्लिम बहुसंख्या में होने के कारण विभाजन से पूर्व यहां मुसलमान ही विधायक बने हैं।
Bagh Ali Sukhera with his faimly
पंजाब विधानसभा के चुनाव 1937 में हुए तो फाजिल्का मुहम्मदन रूरल सीट से अकबर अली पीर ने जीत हासिल की। उन्हें 38.11 प्रतिशत मत मिले। वह 5 अप्रैल 1937 से 19 मार्च 1945 तक पंजाब विधानसभा सदस्य रहे। दूसरे विधानसभा चुनाव 1946 में हुए तो मिया बाग अली सुखेरा विधायक बने। उन्हें 61.9 प्रतिशत मत मिले और वह 21 मार्च 1946 से 4 जुलाई 1947 तक विधायक रहे।
इसके बाद जब भारत विभाजन हुआ तो फाजिल्का के प्रथम विधायक चौधरी वधावा राम बने।
Ch. Wadhawa Ram

Akbar Ali Pir became the first MLA in Fazilka
Before partition of India, there were more Muslims in the area of Fazilka. According to the census of 1941, there were 75.12 percent Muslims in Tahsil of Fazilka. Due to the Muslim majority, Muslims have been the only legislators before partition. In the elections of Punjab assembly in 1937, Akbar Ali Pir won from Fazilka Muhammadan Rural seat. They got 38.11 percent of the votes. He was a Punjab Assembly member from 5th April 1937 to 19th March 1945. In the second assembly elections held in 1946, Mia Bagh Ali Sukhera became the MLA. He got 61.9 percent of the votes and he was a legislator from 21 March 1946 to 4 July 1947. After this, when India was partitioned, Fazilka's first legislator Chaudhary Wadhwa Ram,
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